श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 6: विश्व रूप की सृष्टि  »  श्लोक 22
 
 
श्लोक  3.6.22 
पादावस्य विनिर्भिन्नौ लोकेशो विष्णुराविशत् ।
गत्या स्वांशेन पुरुषो यया प्राप्यं प्रपद्यते ॥ २२ ॥
 
शब्दार्थ
पादौ—दो पाँव; अस्य—विराट रूप के; विनिर्भिन्नौ—पृथक् प्रकट हुए; लोक-ईश: विष्णु:—विष्णु नामक देवता (भगवान् नहीं); आविशत्—प्रविष्ट हुआ; गत्या—चलने-फिरने की शक्ति द्वारा; स्व-अंशेन—अपने ही अंश सहित; पुरुष:—जीव; यया—जिससे; प्राप्यम्—गन्तव्य तक; प्रपद्यते—पहुँचता है ।.
 
अनुवाद
 
 तत्पश्चात् विराट रूप के पाँव पृथक् रुप से प्रकट हुए और विष्णु नामक देवता (भगवान् नहीं) ने उन में आंशिक गति के साथ प्रवेश किया। इससे जीव को अपने गन्तव्य तक जाने में सहायता मिलती है।
 
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥