श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 6: विश्व रूप की सृष्टि  »  श्लोक 3
 
 
श्लोक  3.6.3 
सोऽनुप्रविष्टो भगवांश्चेष्टारूपेण तं गणम् ।
भिन्नं संयोजयमास सुप्तं कर्म प्रबोधयन् ॥ ३ ॥
 
शब्दार्थ
स:—वह; अनुप्रविष्ट:—इस तरह बाद में प्रवेश करते हुए; भगवान्—भगवान्; चेष्टा-रूपेण—अपने प्रयास काली के रूप में; तम्—उनको; गणम्—सारे जीव जिनमें देवता सम्मिलित हैं; भिन्नम्—पृथक्-पृथक्; संयोजयाम् आस—कार्य करने में लगाया; सुप्तम्—सोई हुई; कर्म—कर्म; प्रबोधयन्—प्रबुद्ध करते हुए ।.
 
अनुवाद
 
 इस तरह जब भगवान् अपनी शक्ति से तत्त्वों के भीतर प्रविष्ट हो गये तो सारे जीव प्रबुद्ध होकर विभिन्न कार्यों में उसी तरह लग गये जिस तरह कोई व्यक्ति निद्रा से जगकर अपने कार्य में लग जाता है।
 
तात्पर्य
 हर जीव सृष्टि के लय के पश्चात् अचेत रहता है और भगवान् की भौतिक शक्ति के साथ उनमें ही प्रवेश करता है। ये व्यष्टि जीव पहले से चली आ रही बद्ध आत्माएँ हैं, किन्तु प्रत्येक भौतिक सृष्टि में उन्हें अपने आपको मुक्त करने तथा स्वतंत्र आत्माएँ बनने का अवसर प्रदान किया जाता है। उन्हें वैदिक ज्ञान का लाभ उठाने का तथा यह पता लगाने का कि भगवान् के साथ उनका क्या सम्बन्ध है, वे किस तरह मुक्त बन सकते हैं, और ऐसी मुक्ति में परम लाभ क्या है, अवसर प्रदान किया जाता है। वेदों का समुचित अध्ययन करके मनुष्य अपने पद से अवगत होता है और इस तरह भगवान् की दिव्य भक्ति करता हुआ क्रमश: वैकुण्ठलोक को प्राप्त होता है। भौतिक जगत में व्यष्टि आत्माएँ अपनी विगत अपूर्ण इच्छाओं के अनुसार विभिन्न कार्यों में लगी रहती हैं। किसी विशेष शरीर के विघटन के बाद व्यष्टि आत्मा हर वस्तु को भूल जाती है, किन्तु सर्वकरुणामय भगवान्, जो कि साक्षी परमात्मा के रूप में हर व्यक्ति के हृदय में स्थित हैं, उसे जागृत करते हैं और उसे उसकी विगत इच्छाओं की याद दिलाते रहते हैं। इस तरह वह अपने अगले जीवन में उसी के अनुसार कर्म करने लगता है। इस अदृष्ट मार्गदर्शन को भाग्य कहा जाता है और कोई भी विवेकशील व्यक्ति समझ सकता है कि इससे प्रकृति के तीन गुणों में उसका भौतिकबन्धन बना रहता है।

सृष्टि के आंशिक या पूर्ण लय के तुरन्त बाद जीव की अचेत सुप्तावस्था को कुछ अल्पज्ञ दार्शनिक भूल से जीवन की चरम अवस्था मान बैठते हैं। आंशिक भौतिक शरीर के विलय के बाद जीव केवल कुछ महीनों तक अचेत रहता है और भौतिक सृष्टि के पूर्ण विलय के बाद वह लाखों वर्षों तक अचेत रहता है। किन्तु जब सृष्टि पुन: जागृत होती है, तो भगवान् उसे जगा कर पुन: कर्म में लगाते हैं। जीव शाश्वत है और उसके कार्यों द्वारा प्रकट उसकी जाग्रत चेतना-अवस्था उसके जीवन की स्वाभाविक अवस्था है। जागृत रहते हुए वह कर्म करना बन्द नहीं करता और इस तरह वह अपनी विविध इच्छाओं के अनुसार कर्म करता है। जब उसकी इच्छाएँ भगवान् की दिव्य सेवा करने के लिए प्रशिक्षित की जाती हैं, तो उसका जीवन पूर्ण हो जाता है और नित्य जाग्रत जीवन का आनन्द पाने के लिए वह वैकुण्ठ भेज दिया जाता है।

 
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