श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 6: विश्व रूप की सृष्टि  »  श्लोक 30
 
 
श्लोक  3.6.30 
मुखतोऽवर्तत ब्रह्म पुरुषस्य कुरूद्वह ।
यस्तून्मुखत्वाद्वर्णानां मुख्योऽभूद्ब्राह्मणो गुरु: ॥ ३० ॥
 
शब्दार्थ
मुखत:—मुँह से; अवर्तत—उत्पन्न हुआ; ब्रह्म—वैदिक ज्ञान; पुरुषस्य—विराट पुरुष का; कुरु-उद्वह—हे कुरुवंश के प्रधान; य:—जो; तु—के कारण; उन्मुखत्वात्—उन्मुख; वर्णानाम्—समाज के वर्णों का; मुख्य:—मुख्य; अभूत्—ऐसा हो गया; ब्राह्मण:—ब्राह्मण कहलाया; गुरु:—मान्य शिक्षक या गुरु ।.
 
अनुवाद
 
 हे कुरुवंश के प्रधान, विराट अर्थात् विश्व रुप के मुख से वैदिक ज्ञान प्रकट हुआ। जो लोग इस वैदिक ज्ञान के प्रति उन्मुख होते हैं, वे ब्राह्मण कहलाते हैं और वे समाज के सभी वर्णों के स्वाभाविक शिक्षक तथा गुरु हैं।
 
तात्पर्य
 जैसाकि भगवद्गीता (४.१३) में पुष्टि हुई है मानव समाज के चारों वर्ण विराट रूप के शरीर के क्रमानुसार विकसित हुए। ये शारीरिक विभाग हैं मुख, बाँह, कमर तथा पाँव। जो लोग मुख में स्थित हैं, वे ब्राह्मण कहलाते हैं, जो बाँहों में स्थित हैं, वे क्षत्रिय कहलाते हैं, जो कमर में स्थित हैं, वे वैश्य कहलाते हैं और जो पाँवों में स्थित हैं, वे शूद्र कहलाते हैं। हर व्यक्ति भगवान् के विश्वरूप में उनके शरीर में स्थित है। अतएव चार वर्णों के रूप में किसी जाति को इसलिए निम्न नहीं माना जाना चाहिए कि वह शरीर के किसी विशेष भाग में स्थित है। हम अपने शरीरों में अपने हाथों या पावों के प्रति अपने व्यवहारों में कोई वास्तविक भेदभाव नहीं बरतते। शरीर का अंग-प्रत्यंग महत्त्वपूर्ण है यद्यपि इनमें से मुख सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग है। यदि अन्य अंगों को शरीर से काटकर अलग कर दिया जाय तो मनुष्य जीवित रह सकता है, किन्तु यदि उसका मुख काट दिया जाय तो वह जीवित नहीं रह सकता। अत: भगवान् के शरीर का यह सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण अंग उन ब्राह्मणों का आश्रयस्थल कहलाता है, जो वैदिक ज्ञान के प्रति उन्मुख होते हैं। जो वैदिक ज्ञान के प्रति उन्मुख न होकर संसारी मामलों के प्रति उन्मुख होता है, वह ब्राह्मण नहीं कहला सकता, भले ही वह ब्राह्मण वंश में या ब्राह्मण पिता से क्यों न उत्पन्न हुआ हो। ब्राह्मण पिता से उत्पन्न होने से ही कोई ब्राह्मण बनने का पात्र नहीं हो जाता। ब्राह्मण की मुख्य योग्यता वैदिक ज्ञान के प्रति उसका झुकाव है। वेद भगवान् के मुख में स्थित होते हैं और इसलिए जो कोई वैदिक ज्ञान के प्रति उन्मुख होता है, वह निश्चय ही, ब्राह्मण होता है। वैदिक ज्ञान के प्रति यह उन्मुखता भी किसी विशेष जाति या सम्प्रदाय तक सीमित नहीं है। किसी भी परिवार का तथा विश्व के किसी भी भाग का कोई भी व्यक्ति वैदिक ज्ञान के प्रति उन्मुख हो सकता है और इससे वह असली ब्राह्मण होने के योग्य हो जाएगा।

असली ब्राह्मण स्वाभाविक तौर पर शिक्षक या गुरु होता है। जब तक किसी को वैदिक ज्ञान नहीं है, कोई व्यक्ति गुरु नहीं बन सकता। वेदों का सम्यक् ज्ञान है भगवान् को जानना और यही वैदिक ज्ञान का अन्त अर्थात् वेदान्त है। जो व्यक्ति निर्विशेष ब्रह्म को प्राप्त है और जिसे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् के विषय में कोई जानकारी नहीं होती वह भले ही ब्राह्मण बन जाय, किन्तु वह गुरु नहीं बन सकता। पद्म पुराण में कहा गया है—

षट्कर्मनिपुणो विप्रो मन्त्रतन्त्रविशारद:।

अवैष्णवो गुरुर्न स्याद् वैष्णव: श्वपचो गुरु: ॥

निर्विशेषवादी योग्य ब्राह्मण बन सकता है, किन्तु वह तब तक गुरु नहीं बन सकता जब तक वैष्णव के पद को अथवा भगवद्भक्त पद को प्राप्त नहीं होता। आधुनिक युग में वैदिक ज्ञान के परम अधिकारी श्री चैतन्य महाप्रभु ने कहा है—

किबा विप्र, किबा न्यासी, शूद्र केने नय।

येइ कृष्णतत्त्ववेत्ता, सेइ ‘गुरु’ हय ॥

कोई व्यक्ति ब्राह्मण, शूद्र या संन्यासी हो सकता है, किन्तु यदि वह कृष्ण विज्ञान में निष्णात होता है, तो वह गुरु होने के योग्य है। (चैतन्य-चरितामृत मध्य ८.१२८) तब गुरु की योग्यता योग्य ब्राह्मण होना नहीं, अपितु कृष्ण विज्ञान में निष्णात होना है।

जो कोई भी वैदिक ज्ञान में निष्णात है, वह ब्राह्मण है। और केवल वही ब्राह्मण जो शुद्ध वैष्णव है तथा कृष्ण विज्ञान की सारी जटिलताओं को जानता है गुरु बन सकता है।

 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥