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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 6: विश्व रूप की सृष्टि  »  श्लोक 32
 
 
श्लोक  3.6.32 
विशोऽवर्तन्त तस्योर्वोर्लोकवृत्तिकरीर्विभो: ।
वैश्यस्तदुद्भवो वार्तां नृणां य: समवर्तयत् ॥ ३२ ॥
 
शब्दार्थ
विश:—उत्पादन तथा वितरण द्वारा जीविका का साधन; अवर्तन्त—उत्पन्न किया; तस्य—उसका (विराट रूप का); ऊर्वो:— जाँघों से; लोक-वृत्तिकरी:—आजीविका के साधन; विभो:—भगवान् के; वैश्य:—वैश्य जाति; तत्—उनका; उद्भव:— समायोजन (जन्म); वार्ताम्—जीविका का साधन; नृणाम्—सारे मनुष्यों की; य:—जिसने; समवर्तयत्—सम्पन्न किया ।.
 
अनुवाद
 
 समस्त पुरुषों की जीविका का साधन, अर्थात् अन्न का उत्पादन तथा समस्त प्रजा में उसका वितरण भगवान् के विराट रूप की जाँघों से उत्पन्न किया गया। वे व्यापारी जन जो ऐसे कार्य को संभालते हैं वैश्य कहलाते हैं।
 
तात्पर्य
 मानव समाज की जीविका के साधन को यहाँ पर स्पष्ट रूप से विश कह कर व्यक्त किया गया है, जिसका अर्थ है कृषि तथा कृषि-उत्पादों के वितरण का व्यापार जिसमें यातायात, बैकिंग इत्यादि सम्मिलित हैं। उद्योग तो जीविका का कृत्रिम साधन है और बड़े पैमाने वाले उद्योग तो विशेषकर समाज की सारी समस्याओं की जड़ हैं। भगवद्गीता में भी विश में लगे वैश्यों के कर्तव्य गोरक्षा, कृषि तथा व्यापार बतलाये गये हैं। हम पहले ही व्याख्या कर चुके हैं कि मानव अपनी जीविका के लिए सुरक्षापूर्वक गाय तथा कृषिय भूमि पर निर्भर रह सकते हैं।

बैंकिंग तथा यातायात द्वारा उपज का विनिमय इस प्रकार की जीविका की एक शाखा है। वैश्य कई उपविभागों में बँटे हैं—उनमें से कुछ क्षेत्री या भूमि के स्वामी हैं, कुछ कृष्ण या भूमि जोतने वाले कहलाते हैं, कुछ तिल वणिक अर्थात् अन्न उत्पन्न करने वाले कहलाते हैं कुछ गन्ध वणिक अर्थात् मसाले का व्यापार करने वाले कहलाते हैं और कुछ स्वर्ण वणिक अर्थात् सोने तथा बैंकिंग के व्यापारी कहलाते हैं। ब्राह्मण शिक्षक तथा गुरु होते हैं, क्षत्रिय नागरिकों की चोर-उचक्कों से रक्षा करते हैं और वैश्य उत्पादन तथा वितरण के लिए उत्तरदायी हैं। शूद्र, कम बुद्धिमान श्रेणी के ऐसे लोग हैं, जो स्वतंत्र रूप से उपर्युक्त कार्य नहीं कर सकते, अपनी जीविका के लिए इन तीन उच्चतर श्रेणियों की सेवा करने के लिए होते हैं।

पूर्वकाल में ब्राह्मणों के जीवन की सारी आवश्यकताएँ क्षत्रियों तथा वैश्यों द्वारा पूरी की जाती थीं, क्योंकि जीविका कमाने के लिए उनके पास समय नहीं रहता था। क्षत्रियगण वैश्यों तथा शूद्रों से कर वसूल करते थे, किन्तु ब्राह्मण आयकर या भूमि लगान देने से मुक्त रखे जाते थे। मानव समाज की यह प्रणाली इतनी उत्तम थी कि कोई भी राजनीतिक, सामाजिक तथा आर्थिक उथल-पुथल नहीं मचती थी। अत: विभिन्न जातियाँ अथवा वर्ण विभाजन शान्तिमय मानव समाज बनाये रखने के लिए अत्यावश्यक हैं।

 
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