श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 6: विश्व रूप की सृष्टि  »  श्लोक 35
 
 
श्लोक  3.6.35 
एतत्क्षत्तर्भगवतो दैवकर्मात्मरूपिण: ।
क: श्रद्दध्यादुपाकर्तुं योगमायाबलोदयम् ॥ ३५ ॥
 
शब्दार्थ
एतत्—यह; क्षत्त:—हे विदुर; भगवत:—भगवान् का; दैव-कर्म-आत्म-रूपिण:—विराट रूप के दिव्य कर्म, काल तथा प्रकृति का; क:—और कौन; श्रद्दध्यात्—आकांक्षा कर सकता है; उपाकर्तुम्—समग्र रूप में मापने के लिए; योगमाया— अन्तरंगाशक्ति के; बल-उदयम्—बल द्वारा प्रकट ।.
 
अनुवाद
 
 हे विदुर, पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की अन्तरंगा शक्ति द्वारा प्रकट किये गये विराट रूप के दिव्य काल, कर्म तथा शक्ति को भला कौन माप सकता है या उसका आकलन कर सकता है?
 
तात्पर्य
 कूपमण्डूक दार्शनिक भगवान् की अन्तरंगा शक्ति योगमाया द्वारा प्रदर्शित विराट रूप के विषय में मानसिक चिन्तन करते रहें, किन्तु वस्तुत: कोई भी ऐसे विशाल प्रदर्शन को माप नहीं सकता। भगवद्गीता (११.१६) में भगवान् के मान्य भक्त अर्जुन ने कहा है—

अनेक बाहूदरवक्त्रनेत्रं पश्यामि त्वां सर्वतोऽनन्तरूपम्।

नान्तं न मध्यं न पुनस्तवादिं पश्यामि विश्वेश्वर विश्वरूप ॥

“हे विश्वेश्वर, हे विश्वरूप, हे ब्रह्माण्ड के स्वामी! मैं सभी दिशाओं में असंख्य हाथ, शरीर, मुख तथा आँखें देख रहा हूँ और वे सभी अनन्त हैं। मैं इस रूप का न तो अन्त पा सकता हूँ, न मध्य, न ही आदि।”

भगवद्गीता विशेष रूप से अर्जुन से कही गई थी और उसके अनुरोध पर उसके समक्ष विश्वरूप दिखलाया गया था। उसे इस विश्वरूप को देखने के लिए विशेष आँखें प्रदान की गई थीं। इस तरह यद्यपि वह भगवान् के असंख्य हाथ तथा मुख देख सका, किन्तु वह पूर्णरूपेण उनका दर्शन नहीं कर सका। जब अर्जुन भगवान् की शक्ति के माप का अनुमान लगाने में असमर्थ रहा तो भला और कौन ऐसा कर सकता है? हाँ, कोई कूपमण्डूक दार्शनिक की तरह भ्रान्त अनुमान करने में लगा रह सकता है। कूपमण्डूक दार्शनिक तीन वर्गफुट आकार वाले कुएँ के अपने अनुभव के आधार पर प्रशान्त महासागर की लम्बाई-चौड़ाई का अनुमान लगाना चाहता था, अत: वह प्रशान्त महासागर जितना विशाल होने के लिए गर्व से फूलने लगा, किन्तु अन्त में उसका शरीर फट गया और इस विधि से वह मर गया। यह वृत्तान्त उस मानसिक दार्शनिक पर भी लागू होता है, जो भगवान् की बहिरंगा शक्ति की माया के अधीन परमेश्वर की लम्बाई-चौड़ाई का अनुमान लगाने में उलझा रहता है। सर्वोत्तम मार्ग यही है कि भगवान् का शान्त एवं विनीत भक्त बना जाय, प्रामाणिक गुरु से भगवान् के विषय में सुनने का प्रयास किया जाय तथा जैसाकि पिछले श्लोक में सुझाव दिया गया है, दिव्य प्रेमाभक्ति में भगवान् की सेवा की जाय।

 
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