एक-अन्त—बेजोड़; लाभम्—लाभ; वचस:—विवेचना द्वारा; नु पुंसाम्—परम पुरुष के बाद; सुश्लोक—पवित्र; मौले:— कार्यकलाप; गुण-वादम्—गुणगान; आहु:—ऐसा कहा जाता है; श्रुते:—कान का; च—भी; विद्वद्भि:—विद्वान द्वारा; उपाकृतायाम्—इस तरह सम्पादित; कथा-सुधायाम्—ऐसे दिव्य सन्देश रूपी अमृत में; उपसम्प्रयोगम्—असली उद्देश्य को पूरा करता है, निकट होने से ।.
अनुवाद
मानवता का सर्वोच्च सिद्धिप्रद लाभ पवित्रकर्ता के कार्यकलापों तथा महिमा की चर्चा में प्रवृत्त होना है। ऐसे कार्यकलाप महान् विद्वान ऋषियों द्वारा इतनी सुन्दरता से लिपिबद्ध हुए हैं कि कान का असली प्रयोजन उनके निकट रहने से ही पूरा हो जाता है।
तात्पर्य
निर्विशेषवादी भगवान् के कार्यकलापों को सुनने से अतीव भयभीत रहते हैं, क्योंकि वे सोचते हैं कि ब्रह्म के दिव्य पद से प्राप्त सुख ही जीवन का चरम लक्ष्य है। वे सोचते हैं कि हर एक का कार्य, चाहे वह भगवान् ही क्यों न हो, लौकिक होता है। किन्तु इस श्लोक में सुख का जो भाव व्यक्त है, वह भिन्न है, क्योंकि यह परम पुरुष के कार्यों को बतलाता है जिनके गुण दिव्य होते हैं। गुणवादम् शब्द महत्त्वपूर्ण है, क्योंकि भगवान् के गुण तथा उनके कार्यकलाप एवं उनकी लीलाएँ भक्तों की चर्चा के विषय होते हैं। मैत्रेय जैसा ऋषि निश्चय ही लौकिक गुणों वाली किसी बात की चर्चा करने में रुचि नहीं रखता। फिर भी वे कहते हैं कि दिव्य साक्षात्कार की सर्वोच्च सिद्धिप्रद अवस्था भगवान् के कार्यकलापों की चर्चा करना है। इसीलिए श्रील जीव गोस्वामी इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि भगवान् के दिव्य कार्यकलापों से सम्बन्धित कथाएँ कैवल्य सुख की दिव्य अनुभूति से बहुत परे हैं। भगवान् के इन दिव्य कार्यकलापों को महर्षियों ने इस प्रकार लिपिबद्ध किया है कि उन कथाओं को सुनने से ही मनुष्य आत्म-साक्षात्कार को प्राप्त होता है और कान तथा जीभ का भी सदुपयोग हो जाता है। श्रीमद्भागवत ऐसा ही एक महान् ग्रन्थ है और इसकी विषयवस्तु को सुनने-सुनाने मात्र से जीवन की सर्वोच्च सिद्धावस्था प्राप्त हो जाती है।
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