महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिता:। भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ॥ सततं कार्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रता:। नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ॥ (भगवद्गीता ९.१३-१४) भगवान् के शुद्ध भक्त भगवान् की अंतरंगा शक्ति, पराप्रकृति की शरण ग्रहण करते हैं जिसे लक्ष्मीदेवी, सीतादेवी, श्रीमती राधारानी या श्रीमती रुक्मिणीदेवी कहा जाता है। इस तरह वे वास्तविक महात्मा बन जाते हैं। महात्मा मानसिक चिन्तन के शौकीन नहीं होते, किन्तु वे अविचल भाव से भगवान् की भक्ति में लगे रहते हैं। भक्ति का प्राकट्य भगवान् के कार्यकलापों के विषय में सुनने तथा कीर्तन करने की प्रारभ्भिक विधि से होता है। महात्माओं द्वारा अपनायी गई इस दिव्य विधि से उन्हें भगवान् विषयक पर्याप्त ज्ञान प्राप्त हो जाता है, क्योंकि यदि भगवान् को किसी हद तक जाना जा सकता है, तो वह भक्ति के साधन के द्वारा ही है, अन्य किसी विधि द्वारा नहीं। चिन्तन करते हुए कोई मनुष्य अपने पूरे जीवन का मूल्यवान समय व्यर्थ क्यों न बिता दे, किन्तु इससे भगवान् के धाम में प्रवेश पाने में कोई सहायता नहीं मिलती। किन्तु महात्मागण मानसिक चिन्तन द्वारा भगवान् को जानने में तनिक भी रुचि नहीं दिखाते, क्योंकि वे भगवान् द्वारा अपने भक्तों के साथ या असुरों के साथ दिव्य व्यवहारों के अन्तर्गत उनके महिमायुक्त कार्यकलापों के विषय में श्रवण करने में आनन्द लेते हैं। भक्त- गण इन दोनों में आनन्द पाते हैं और इस जीवन में तथा बाद के जीवन में सुखी रहते हैं। |