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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 6: विश्व रूप की सृष्टि  »  श्लोक 38
 
 
श्लोक  3.6.38 
आत्मनोऽवसितो वत्स महिमा कविनादिना ।
संवत्सरसहस्रान्ते धिया योगविपक्‍कया ॥ ३८ ॥
 
शब्दार्थ
आत्मन:—परमात्मा की; अवसित:—ज्ञात; वत्स—हे पुत्र; महिमा—महिमा; कविना—कवि ब्रह्मा द्वारा; आदिना—आदि; संवत्सर—दैवी वर्ष; सहस्र-अन्ते—एक हजार वर्षों के अन्त में; धिया—बुद्धि द्वारा; योग-विपक्कया—परिपक्व ध्यान द्वारा ।.
 
अनुवाद
 
 हे पुत्र, आदि कवि ब्रह्मा एक हजार दैवी वर्षों तक परिपक्व ध्यान के बाद केवल इतना जान पाये कि भगवान् की महिमा अचिन्त्य है।
 
तात्पर्य
 कुछ ऐसे कूपमण्डूक दार्शनिक हैं, जो दर्शन तथा मानसिक चिन्तन द्वारा परमात्मा को जानना चाहते हैं। जब परमेश्वर को कुछ हद तक जानने वाले भक्तगण यह स्वीकार करते हैं कि भगवान् की महिमा अकल्पनीय अथवा अचिन्त्य है, तो कूपमण्डूक दार्शनिक उनकी निन्दा पूर्वक आलोचना करते हैं। ये दार्शनिक उस कूपमण्डूक की तरह हैं जिसने प्रशान्त महासागर को मापने का प्रयास किया था। वे आदिकवि ब्रह्मा जैसे भक्तों से उपदेश ग्रहण न करके निरर्थक मानसिक चिन्तन का कष्ट उठाना पसंद करते हैं। ब्रह्माजी ने एक हजार दैवी वर्षों तक कठिन ध्यान किया था; फिर भी उन्होंने कहा कि भगवान् की महिमा अचिन्त्य है। अत: ये कूपमण्डूक दार्शनिक अपने मानसिक चिन्तन से कौन सा लाभ पाने की आशा कर सकते हैं? ब्रह्म-संहिता में कहा गया है कि मानसिक चिन्तक चिन्तन के आकाश में मन या वायु के वेग से करोड़ों वर्षों तक क्यों न उड़ता रहे, फिर भी वह इसे अचिन्त्य पाएगा। किन्तु भक्तगण ब्रह्म के ज्ञान की व्यर्थ खोज में समय नहीं गँवाते, अपितु वे प्रामाणिक भक्तों से भगवान् की महिमा का विनीत भाव से श्रवण करते हैं। इस तरह वे श्रवण तथा कीर्तन की प्रक्रिया का दिव्य आनन्द उठाते हैं। भगवान् भक्तों या महात्माओं के भक्तिकार्यों का अनुमोदन करते हैं और कहते हैं—

महात्मानस्तु मां पार्थ दैवीं प्रकृतिमाश्रिता:।

भजन्त्यनन्यमनसो ज्ञात्वा भूतादिमव्ययम् ॥

सततं कार्तयन्तो मां यतन्तश्च दृढव्रता:।

नमस्यन्तश्च मां भक्त्या नित्ययुक्ता उपासते ॥

(भगवद्गीता ९.१३-१४) भगवान् के शुद्ध भक्त भगवान् की अंतरंगा शक्ति, पराप्रकृति की शरण ग्रहण करते हैं जिसे लक्ष्मीदेवी, सीतादेवी, श्रीमती राधारानी या श्रीमती रुक्मिणीदेवी कहा जाता है। इस तरह वे वास्तविक महात्मा बन जाते हैं। महात्मा मानसिक चिन्तन के शौकीन नहीं होते, किन्तु वे अविचल भाव से भगवान् की भक्ति में लगे रहते हैं। भक्ति का प्राकट्य भगवान् के कार्यकलापों के विषय में सुनने तथा कीर्तन करने की प्रारभ्भिक विधि से होता है। महात्माओं द्वारा अपनायी गई इस दिव्य विधि से उन्हें भगवान् विषयक पर्याप्त ज्ञान प्राप्त हो जाता है, क्योंकि यदि भगवान् को किसी हद तक जाना जा सकता है, तो वह भक्ति के साधन के द्वारा ही है, अन्य किसी विधि द्वारा नहीं। चिन्तन करते हुए कोई मनुष्य अपने पूरे जीवन का मूल्यवान समय व्यर्थ क्यों न बिता दे, किन्तु इससे भगवान् के धाम में प्रवेश पाने में कोई सहायता नहीं मिलती। किन्तु महात्मागण मानसिक चिन्तन द्वारा भगवान् को जानने में तनिक भी रुचि नहीं दिखाते, क्योंकि वे भगवान् द्वारा अपने भक्तों के साथ या असुरों के साथ दिव्य व्यवहारों के अन्तर्गत उनके महिमायुक्त कार्यकलापों के विषय में श्रवण करने में आनन्द लेते हैं। भक्त- गण इन दोनों में आनन्द पाते हैं और इस जीवन में तथा बाद के जीवन में सुखी रहते हैं।

 
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