श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 6: विश्व रूप की सृष्टि  »  श्लोक 40
 
 
श्लोक  3.6.40 
यतोऽप्राप्य न्यवर्तन्त वाचश्च मनसा सह ।
अहं चान्य इमे देवास्तस्मै भगवते नम: ॥ ४० ॥
 
शब्दार्थ
यत:—जिससे; अप्राप्य—माप न सकने के कारण; न्यवर्तन्त—प्रयास करना बन्द कर देते हैं; वाच:—शब्द; च—भी; मनसा—मन से; सह—सहित; अहम् च—अहंकार भी; अन्ये—अन्य; इमे—ये सभी; देवा:—देवतागण; तस्मै—उस; भगवते—भगवान् को; नम:—नमस्कार करते हैं ।.
 
अनुवाद
 
 अपने-अपने नियंत्रक देवों सहित शब्द, मन तथा अहंकार पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को जानने में असफल रहे हैं। अतएव हमें विवेकपूर्वक उन्हें सादर नमस्कार करना होता है।
 
तात्पर्य
 कूपमण्डूक आकलक यह आपत्ति उठा सकता है कि यदि भगवान् वाणी, मन तथा अहंकार के नियन्ता देवों द्वारा, जो कि क्रमश: वेद, ब्रह्मा, रुद्र तथा बृहस्पति इत्यादि देवता हैं, अज्ञेय हैं, तो फिर भक्तगण इस अज्ञात वस्तु में इतनी रुचि क्यों दिखाएँ? इसका उत्तर यह है कि भक्तों को भगवान् की लीलाओं को जानने में जो दिव्य आनन्द प्राप्त होता है, वह निश्चय ही अभक्तों तथा मानसिक चिन्तकों के लिए अज्ञात है। यदि कोई दिव्य आनन्द का आस्वाद नहीं कर लेता तब स्वाभाविक है कि वह अपने चिन्तन तथा मनगढ़ंत निष्कर्षों से वापस लौट आएगा, क्योंकि वह उन्हें न तो वास्तविक मानेगा न आनन्दवर्धक। भक्तगण कम से कम इतना तो जान सकते हैं कि परम सत्य पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् विष्णु हैं, जैसी कि वैदिक स्तोत्रों में पुष्टि हुई हैं—ॐ तद्विष्णो: परमं पदं सदा पश्यन्ति सूरय:। भगवद्गीता (१५.१५) में भी इस तथ्य की पुष्टि हुई है—वेदैश्च सर्वैरहमेव वेद्य:। मनुष्य को वैदिक ज्ञान के अनुशीलन के द्वारा भगवान् कृष्ण को जानना चाहिए और व्यर्थ ही अहम् अर्थात् “मैं” शब्द के विषय में चिन्तन नहीं करना चाहिए। परम सत्य को जानने की एकमात्र विधि भक्ति है जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है—भक्त्या मामभिजानाति यावान्यश्चास्मि तत्त्वत:। केवल भक्ति द्वारा यह जाना जा सकता है कि परम सत्य भगवान् हैं और ब्रह्म तथा परमात्मा उनके अंश हैं। इसकी पुष्टि इस श्लोक में महर्षि मैत्रेय द्वारा की गई है। वे भक्तिभाव से भगवान् को (भगवते) सादर नमस्कार (नम:) करते हैं। मनुष्य को मैत्रेय तथा विदुर, महाराज परीक्षित एवं शुकदेव गोस्वामी जैसे महर्षियों तथा भक्तों के चरणचिह्नों का अनुगमन करना चाहिए और यदि वह उनके परम स्वरूप को जानना चाहता है, जो कि ब्रह्म तथा परमात्मा के ऊपर है, तो उसे भगवान् की दिव्य भक्तिमय सेवा में लग जाना है।
 
इस प्रकार श्रीमद्भागवत के तृतीय स्कन्ध के अन्तर्गत “विश्वरूप की सृष्टि” नामक छठे अध्याय के भक्तिवेदान्त तात्पर्य पूर्ण हुए।
 
 
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