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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 6: विश्व रूप की सृष्टि  »  श्लोक 6
 
 
श्लोक  3.6.6 
हिरण्मय: स पुरुष: सहस्रपरिवत्सरान् ।
आण्डकोश उवासाप्सु सर्वसत्त्वोपबृंहित: ॥ ६ ॥
 
शब्दार्थ
हिरण्मय:—विराट रूप धारण करने वाले गर्भोदकशायी विष्णु; स:—वह; पुरुष:—ईश्वर का अवतार; सहस्र—एक हजार; परिवत्सरान्—दैवी वर्षों तक; आण्ड-कोशे—अंडाकार ब्रह्माण्ड के भीतर; उवास—निवास करता रहा; अप्सु—जल में; सर्व सत्त्व—उनके साथ शयन कर रहे सारे जीव; उपबृंहित:—इस तरह फैले हुए ।.
 
अनुवाद
 
 विराट पुरुष जो हिरण्मय कहलाता है, ब्रह्माण्ड के जल में एक हजार दैवी वर्षों तक रहता रहा और सारे जीव उसके साथ शयन करते रहे।
 
तात्पर्य
 जब भगवान् गर्भोदकशायी विष्णु के रूप में प्रत्येक ब्रह्माण्ड में प्रविष्ट हो गये तो आधा ब्रह्माण्ड जल से भर गया। लोकों, बाह्य आकाश इत्यादि की विराट अभिव्यक्ति, जो हमें दृष्टिगोचर होते हैं, पूर्ण ब्रह्माण्ड की केवल आधी है। अभिव्यक्ति के पूर्व तथा ब्रह्माण्ड के भीतर विष्णु के प्रवेश करने के बाद एक हजार दैवी वर्षों की अवधि होती है। महत् तत्त्व के गर्भ में प्रविष्ट किये गये सारे जीव सभी ब्रह्माण्डों में गर्भोदकशायी विष्णु के अवतार के साथ विभाजित हो जाते हैं और वे भगवान् के साथ तब तक शयन करते रहते हैं जब तक ब्रह्मा का जन्म नहीं हो जाता। ब्रह्माण्ड के भीतर ब्रह्मा ही प्रथम जीव होता है और अन्य सारे देवता तथा जीव उन्हीं से जन्मते हैं। मनुष्य जाति के आदि पिता मनु हैं, अतएव संस्कृत में मानव जाति मनुष्य कहलाती है। विभिन्न शारीरिक गुणों वाला मानव विभिन्न लोकों में विभाजित किया जाता है।
 
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