स वै विश्वसृजां गर्भो देवकर्मात्मशक्तिमान् ।
विबभाजात्मनात्मानमेकधा दशधा त्रिधा ॥ ७ ॥
शब्दार्थ
स:—वह; वै—निश्चय ही; विश्व-सृजाम्—विराट रूप की; गर्भ:—सम्पूर्ण शक्ति; देव—सजीव शक्ति; कर्म—जीवन की क्रियाशीलता; आत्म—आत्मा; शक्तिमान्—शक्तियों से पूरित; विबभाज—विभाजित कर दिया; आत्मना—अपने आप से; आत्मानम्—अपने को; एकधा—एक में; दशधा—दस में; त्रिधा—तथा तीन में ।.
अनुवाद
विराट रूप में महत् तत्त्व की समग्र शक्ति ने स्वत: अपने को जीवों की चेतना, जीवन की क्रियाशीलता तथा आत्म-पहचान के रूप में विभाजित कर लिया जो एक, दस तथा तीन में क्रमश: उपविभाजित हो गए हैं।
तात्पर्य
चेतना जीव या आत्मा का चिह्न है। आत्मा का अस्तित्व चेतना के रूप में प्रकट है, जो ज्ञानशक्ति कहलाता है। समग्र चेतना विराट रूप की होती है और वही चेतना पृथक्-पृथक् व्यक्तियों में प्रकट होती है। चेतना का कार्य प्राणवायु के माध्यम से सम्पन्न किया जाता है, जो दस प्रकार की है। ये प्राणवायुएँ प्राण, अपान, उदान, व्यान तथा समान कहलाती हैं और नाग, कूर्म, कृकर, देवदत्त तथा धनञ्जय के रूप में अलग-अलग गुणों वाली भी हैं। आत्मा की चेतना भौतिक वातावरण द्वारा दूषित हो जाती है और इस प्रकार शारीरिक पहचान के मिथ्या अहंकार में विभिन्न कार्यकलाप प्रकट होते हैं। भगवद्गीता (२.४१) में इन विभिन्न कार्यकलापों का वर्णन बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम् के रूप में हुआ है। बद्ध आत्मा शुद्धचेतना के अभाव में विविध कार्यों में मोहग्रस्त होता रहता है।
शुद्धचेतनावस्था में केवल एक कार्य होता है। व्यष्टि आत्मा की चेतना उस समय परम चेतना से एक हो जाती है जब इन दोनों के मध्य पूर्ण समन्वयन होता है।
अद्वैतवादी का विश्वास है कि चेतना केवल एक होती है, जबकि सात्वतों अर्थात् भक्तों का विश्वास है कि यद्यपि चेतना निस्सन्देह एक है, किन्तु उनमें तालमेल होने से ही वे एक हैं। व्यष्टि चेतना को परम चेतना के साथ जुड़ जाने की सलाह दी जाती है जैसाकि भगवद्गीता (१८.६६) में भगवान् ने उपदेश दिया है—सर्वधर्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। व्यष्टि चेतना (अर्जुन) को परम चेतना के साथ-साथ रहने की और इस तरह अपनी सचतेन शुद्धता बनाये रखने की सलाह दी जाती है। चेतना के कार्यकलापों को बन्द करने का प्रयास मूर्खता है, किन्तु भगवान् के साथ जोडक़र उन्हें शुद्ध किया जा सकता है। यह चेतना शुद्धि की मात्रा के अनुसार आत्म-पहचान के तीन गुणों में विभाजित हो जाती हैं—आध्यात्मिक अर्थात् शरीर तथा मन के साथ आत्म-पहचान, आधिभौतिक या भौतिक उत्पादों के साथ आत्म-पहचान, तथा आधिदैविक या भगवान् के सेवक के रूप में आत्म-पहचान। इन तीनों में आधिदैविक आत्म-पहचान भगवान् की इच्छा का पालन करते हुए चेतना की शुद्धि की शुरुआत है।
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