भगवान् का विश्वरूप प्रथम अवतार तथा परमात्मा का स्वांश होता है। वे असंख्य जीवों के आत्मा हैं और उनमें समुच्चित सृष्टि (भूतग्राम) टिकी रहती है, जो इस तरह फलती फूलती है।
तात्पर्य
भगवान् दो प्रकार से अपना विस्तार करते हैं—आत्म स्वांश द्वारा तथा विभक्त सूक्ष्म अंश द्वारा। आत्म स्वांश विष्णुतत्त्व है तथा विभक्त अंश जीव हैं। चूँकि जीव अत्यन्त लघु हैं, अतएव कभी- कभी उन्हें भगवान् की तटस्था शक्ति कहा जाता है। किन्तु योगीजन जीवों तथा परमात्मा को एक ही मानते हैं, पर यह विवाद का बहुत नगण्य बिन्दु है। कुल मिलाकर प्रत्येक वस्तु भगवान् के विराट् रूप या विश्वरूप पर ही टिकी रहती है।
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