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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 7: विदुर द्वारा अन्य प्रश्न  »  श्लोक 11
 
 
श्लोक  3.7.11 
यथा जले चन्द्रमस: कम्पादिस्तत्कृतो गुण: ।
द‍ृश्यतेऽसन्नपि द्रष्टुरात्मनोऽनात्मनो गुण: ॥ ११ ॥
 
शब्दार्थ
यथा—जिस तरह; जले—जल में; चन्द्रमस:—चन्द्रमा का; कम्प-आदि:—कम्पन इत्यादि; तत्-कृत:—जल द्वारा किया गया; गुण:—गुण; दृश्यते—इस तरह दिखता है; असन् अपि—बिना अस्तित्व के; द्रष्टु:—द्रष्टा का; आत्मन:—आत्मा का; अनात्मन:—आत्मा के अतिरिक्त अन्य का; गुण:—गुण ।.
 
अनुवाद
 
 जिस तरह जल में प्रतिबिम्बित चन्द्रमा जल के गुण से सम्बद्ध होने के कारण देखने वाले को हिलता हुआ प्रतीत होता है उसी तरह पदार्थ से सम्बद्ध आत्मा पदार्थ के ही समान प्रतीत होता है।
 
तात्पर्य
 परमात्मा या भगवान् की तुलना आकाश में चन्द्रमा से की गई है और जीवों की तुलना जल में चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब से की गई है चन्द्रमा आकाश में स्थिर है और वह जल में दिखने वाले चन्द्रमा की तरह हिलता-डुलता नहीं। वस्तुत: आकाश में मूल चन्द्रमा की तरह जल में प्रतिबिम्बित चन्द्रमा को काँपना या हिलना नहीं चाहिए, किन्तु जल से सम्बद्ध होने से प्रतिबिम्ब हिलता हुआ प्रतीत होता है, यद्यपि वास्तव में चन्द्रमा स्थिर है। जल चलता है, किन्तु चन्द्रमा नहीं चलता। इसी तरह सारे जीव मोह, शोक तथा कष्ट जैसे भौतिक गुणों से कलुषित प्रतीत होते हैं, यद्यपि शुद्ध आत्मा में ऐसे गुण सर्वथा अनुपस्थित होते हैं। प्रतीयते शब्द यहाँ पर महत्त्वपूर्ण है। इसका अर्थ है “ऊपर से” तथा “वास्तविक रूप में नहीं” (स्वप्न में अपना सिर कटने के अनुभव की तरह) जल में चन्द्रमा का प्रतिबिम्ब चन्द्रमा की वियुक्त किरणें होती हैं, वास्तविक चन्द्रमा नहीं। भगवान् के वियुक्त भिन्नांश भौतिक जगत रूपी जल में उलझ कर चलायमान गुण वाले होते हैं, जबकि भगवान् आकाश में स्थित चन्द्रमा के तुल्य है, जो जल से किसी प्रकार भी स्पर्श में नहीं आता है। सूर्य तथा चन्द्रमा का प्रकाश पदार्थ से परावर्तित होकर उसे चमकीला तथा प्रशंसा के योग्य बनाता है। जीवित लक्षणों की तुलना वृक्षों तथा पर्वतों जैसे भौतिक रूपों को प्रकाशित करने वाले सूर्य तथा चन्द्रमा के प्रकाश से की जाती है। सूर्य या चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को अल्पज्ञानी असली सूर्य या चन्द्रमा मान बैठता है और शुद्ध अद्वैत दर्शन इन्हीं विचारों से उपजता है। वस्तुत: सूर्य तथा चन्द्रमा का प्रकाश स्वयं सूर्य तथा चन्द्रमा से भिन्न है, यद्यपि उनमें सदा सम्बन्ध बना रहता है। आकाश भर में फैली हुई चाँदनी निर्विशेष प्रतीत होती है, किन्तु चन्द्रलोक, जिस रूप में वह है, साकार है और चन्द्रलोक में रहने वाले जीव भी साकार हैं। चन्द्रमा की किरणों में विभिन्न भौतिक वस्तुएँ कम या अधिक महत्त्वपूर्ण प्रतीत होती हैं। ताजमहल पर चन्द्रमा का प्रकाश (चाँदनी) निर्जन स्थान में उसी प्रकाश की अपेक्षा अधिक सुन्दर लगता है। यद्यपि चन्द्रमा का प्रकाश सर्वत्र वही रहता है, किन्तु भिन्न-भिन्न प्रकार से निखरने से वह भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है। इसी तरह भगवान् का प्रकाश सर्वत्र एकसमान वितरित है, किन्तु भिन्न-भिन्न प्रकार से ग्रहण किये जाने के कारण वह भिन्न-भिन्न प्रतीत होता है। इसलिए जल पर चन्द्रमा के प्रतिबिम्ब को वास्तविक नहीं मानना चाहिए और सम्पूर्ण स्थिति को अद्वैतवाद दर्शन के माध्यम से समझने की गलती नहीं करनी चाहिए। चन्द्रमा का हिलने-डुलने (कम्पन) का गुण भी परिवर्तनशील है। जब जल स्थिर रहता है, तो कम्पन भी नहीं होता। अधिक स्थिर बद्ध आत्मा में कम कम्पन होता है, किन्तु भौतिक सम्बन्ध होने से यह कम्पन का गुण न्यूनाधिक रूप में सर्वत्र विद्यमान रहता है।
 
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