स वै निवृत्तिधर्मेण वासुदेवानुकम्पया ।
भगवद्भक्तियोगेन तिरोधत्ते शनैरिह ॥ १२ ॥
शब्दार्थ
स:—वह; वै—भी; निवृत्ति—विरक्ति; धर्मेण—संलग्न रहने से; वासुदेव—भगवान् की; अनुकम्पया—कृपा से; भगवत्— भगवान् के सम्बन्ध में; भक्ति-योगेन—जुडऩे से; तिरोधत्ते—कम होती है; शनै:—क्रमश:; इह—इस संसार में ।.
अनुवाद
किन्तु आत्म-पहचान की उस भ्रान्ति को भगवान् वासुदेव की कृपा से विरक्त भाव से भगवान् की भक्तिमय सेवा की विधि के माध्यम से धीरे-धीरे कम किया जा सकता है।
तात्पर्य
संसार का कम्पन गुण जो पदार्थ के साथ अपनी पहचान करने या दार्शनिक चिन्तन के भौतिक प्रभाव में आकर अपने को ईश्वर समझने के फलस्वरूप उत्पन्न होता है, उसे भगवान् वासुदेव की कृपा से भगवद्भक्ति द्वारा समूल नष्ट किया जा सकता है। जैसी कि प्रथम स्कन्ध में व्याख्या की गई है, चूँकि भगवान् वासुदेव की भक्ति करने से शुद्ध ज्ञान को बुलावा दिया जाता है, अत: यह मनुष्य को देहात्मबुद्धि से तुरन्त विलग करके सामान्य आध्यात्मिक स्थिति में, इसी जीवन में भी, ला देती है और मनुष्य को उन भौतिक हवाओं से मुक्त कर देती है, जो उसे कँपाती है। भक्ति का ज्ञान ही मनुष्य को मुक्ति के मार्ग तक ऊपर उठाता है। भक्ति किये बिना हर वस्तु को जानने के उद्देश्य से ज्ञान का विकास निष्फल प्रयास माना जाता है और मनुष्य को ऐसे प्रेम रूपी श्रम से वांछित फल नहीं मिल सकता। भगवान् वासुदेव एकमात्र भक्तिमय सेवा से प्रसन्न होते है और इस प्रकार उनकी कृपा की अनुभूति भगवान् के शुद्ध भक्तों की संगति से ही सम्भव है। भगवान् के शुद्ध भक्त उन समस्त भौतिक इच्छाओं से परे हैं, जिनमें सकाम कर्म तथा दार्शनिक चिन्तन के फल सम्मिलित हैं। यदि कोई व्यक्ति भगवान् की कृपा प्राप्त करना चाहता है, तो उसे शुद्ध भक्तों की संगति करनी होती है। ऐसी संगति ही मनुष्य को क्रमश: भ्रमित करने वाले तत्त्वों से छुटकारा दिला सकती है।
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