श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 7: विदुर द्वारा अन्य प्रश्न  »  श्लोक 13
 
 
श्लोक  3.7.13 
यदेन्द्रियोपरामोऽथ द्रष्ट्रात्मनि परे हरौ ।
विलीयन्ते तदा क्लेशा: संसुप्तस्येव कृत्‍स्‍नश: ॥ १३ ॥
 
शब्दार्थ
यदा—जब; इन्द्रिय—इन्द्रियाँ; उपराम:—तृप्त; अथ—इस प्रकार; द्रष्टृ-आत्मनि—द्रष्टा या परमात्मा के प्रति; परे—अध्यात्म में; हरौ—भगवान् में; विलीयन्ते—लीन हो जाती है; तदा—उस समय; क्लेशा:—कष्ट; संसुप्तस्य—गहरी नींद का भोग कर चुका व्यक्ति; इव—सदृश; कृत्स्नश:—पूर्णतया ।.
 
अनुवाद
 
 जब इन्द्रियाँ द्रष्टा-परमात्मा अर्थात् भगवान् में तुष्ट हो जाती है और उनमें विलीन हो जाती है, तो सारे कष्ट उसी तरह पूर्णतया दूर हो जाते हैं जिस तरह ये गहरी नींद के बाद दूर हो जाते हैं।
 
तात्पर्य
 जीव का कम्पन (चंचलता), जिसका उल्लेख ऊपर हुआ है, इन्द्रियों के कारण होता है। चूँकि सम्पूर्ण भौतिक जगत इन्द्रिय-तृप्ति के निमित्त है, अत: इन्द्रियाँ ही भौतिक कर्मों की माध्यम होती हैं और वे निश्चल आत्मा में कम्पन उत्पन्न करती हैं। अतएव इन इन्द्रियों को ऐसे समस्त भौतिक कार्यों से विरक्त करना होगा। निर्विशेषवादियों के अनुसार आत्मा को परमात्मा ब्रह्म में लीन करके इन्द्रियों को कार्य करने से रोका जाता है। किन्तु भक्तगण भौतिक इन्द्रियों को कार्य करने से रोकते नहीं, अपितु वे अपनी दिव्य इन्द्रियों को ब्रह्म या पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की सेवा में लगाते हैं। दोनों ही दशाओं में ज्ञान के अनुशीलन द्वारा भौतिक क्षेत्र में इन्द्रियों के कार्यों को रोकना चाहिए और, सम्भव हो, तो उन्हें भगवान् की सेवा में लगाना चाहिए। इन्द्रियों का स्वभाव दिव्य है, किन्तु पदार्थ द्वारा कलुषित होने पर उनके कार्य दूषित हो जाते हैं। हमें इन्द्रियों को भवरोग से छुटकारा दिलाने के लिए उनका उपचार करना पड़ता है, उन्हें कार्य करने से रोकना नहीं होता जैसाकि निर्विशेषवादियों का सुझाव है। भगवद्गीता (२.५९) में कहा गया है कि मनुष्य तभी सारा भौतिक कार्य बन्द करता है जब वह किसी श्रेष्ठतर कार्य में लगने से तुष्ट हो जाता है। चेतना स्वभावत: सक्रिय होती है और काम करने से उसे रोका नहीं जा सकता। उत्पाती बालक को कृत्रिम ढंग से रोकना वास्तविक उपचार नहीं है। उस बालक को किसी श्रेष्ठतर कार्य में लगाना चाहिए जिससे वह स्वत: उपद्रव करना बन्द कर दे। उसी तरह इन्द्रियों की उपद्रवी गतिविधियों को उन्हें भगवान् से सम्बन्धित अच्छे कार्य में प्रवृत्त करके ही रोका जा सकता है। जब आँख भगवान् के सुन्दर रूप को देखने, जीभ प्रसाद का आस्वाद करने, कान उनकी महिमा को सुनने, हाथ भगवान् का मन्दिर बुहारने, पाँव उनके मन्दिरों तक जाने में व्यस्त रहेंगे अर्थात् जब सारी इन्द्रियाँ विविध दिव्य कर्मों में लगी रहेंगी तभी दिव्य इन्द्रियाँ तृप्त हो सकेंगी और भौतिक कार्य से शाश्वत रूप से मुक्त हो जाएँगी। परमात्मा रूप में हर एक के हृदय के भीतर वास करने वाले या भौतिक सृष्टि से परे दिव्य जगत में स्थित रहने वाले पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ही हमारे सारे कार्यों के द्रष्टा हैं। हमारे कार्यों को इस तरह से संतृप्त होना चाहिए कि भगवान् हम पर कृपादृष्टि डालें और हमें अपनी दिव्य सेवा में लगा लें। तभी इन्द्रियाँ पूर्णतया तुष्ट हो सकती हैं और भौतिक आकर्षण द्वारा फिर कभी सतायी नहीं जाएँगी।
 
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