अशेषसंक्लेशशमं विधत्ते गुणानुवादश्रवणं मुरारे: ।
किं वा पुनस्तच्चरणारविन्दपरागसेवारतिरात्मलब्धा ॥ १४ ॥
शब्दार्थ
अशेष—असीम; सङ्क्लेश—कष्टमय स्थिति; शमम्—शमन; विधत्ते—सम्पन्न कर सकता है; गुण-अनुवाद—दिव्य नाम, रूप, गुण, लीला, पार्षद तथा साज-सामग्री इत्यादि का.; श्रवणम्—सुनना तथा कीर्तन करना; मुरारे:—मुरारी (श्रीकृष्ण) का; किम् वा—और अधिक क्या कहा जाय; पुन:—फिर; तत्—उसके; चरण-अरविन्द—चरणकमल; पराग-सेवा—सुगंधित धूल की सेवा के लिए; रति:—आकर्षण; आत्म-लब्धा—जिन्होंने ऐसी आत्म-उपलब्धि प्राप्त कर ली है ।.
अनुवाद
भगवान् श्रीकृष्ण के दिव्य नाम, रूप इत्यादि के कीर्तन तथा श्रवण मात्र से मनुष्य की असीम कष्टप्रद अवस्थाएँ शमित हो सकती हैं। अतएव उनके विषय में क्या कहा जाये, जिन्होंने भगवान् के चरणकमलों की धूल की सुगंध की सेवा करने के लिए आकर्षण प्राप्त कर लिया हो?
तात्पर्य
वैदिक शास्त्रीय विद्या में भौतिक इन्द्रियों को वश में करने की दो अलग-अलग विधियों की संस्तुति की गई है। इनमें से एक ज्ञानयोग है अर्थात् ब्रह्म, परमात्मा, तथा भगवान् के दार्शनिक ज्ञान का मार्ग। दूसरी विधि है भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति रुपी सेवा में जुट जाना। इन दो अत्यन्त लोकप्रिय विधियों में से यहाँ पर भक्ति मय सेवा के मार्ग को सर्वोत्तम कह कर संस्तुत किया गया है, क्योंकि जो भक्तिमार्ग पर चलता है उसे पुण्यकर्मों के सकाम फल के लिए या ज्ञान के परिणामों के लिए प्रतीक्षा नहीं करनी पड़ती। भक्ति सम्पन्न करने की दो अवस्थाएँ हैं। पहली: मान्य शास्त्रों के नियमानुसार अपनी वर्तमान इन्द्रियों द्वारा भक्ति का अभ्यास करने की अवस्था तथा दूसरी: भगवान् के चरणकमलों की धूलि के कणों की सेवा करने के लिए निष्ठावान अनुरक्ति प्राप्त करना। प्रथम अवस्था साधन भक्ति कहलाती है, जो नव-जिज्ञासुओं द्वारा की जाने वाली भक्ति है और किसी शुद्ध भक्त के निर्देशन में सम्पन्न की जाती है। दूसरी अवस्था राग भक्ति है, जिसमें परिपक्व (प्रौढ़) भक्त निष्ठापूर्ण अनुराग के कारण स्वत: भगवान् की विविध सेवाओं में लगा रहता है। अब महर्षि मैत्रेय विदुर के सारे प्रश्नों का अन्तिम उत्तर इस तरह दे रहे हैं: भगवान् की भक्ति संसार की समस्त कष्टप्रद दशाओं को कम करने का चरम साधन है। उद्देश्य की पूर्ति हेतु ज्ञानमार्ग या योगिक आसनों को अपनाया जा सकता है, किन्तु भक्ति से मिश्रित किये बिना ये वाञ्छित फल दिलाने में अक्षम है। साधन भक्ति के अभ्यास से मनुष्य धीर-धीरे रागभक्ति तक उठ सकता है। दिव्य प्रेमाभक्ति में रागभक्ति सम्पन्न करके वह परम शक्तिशाली भगवान् को भी अपने वश में कर सकता है।
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