श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 7: विदुर द्वारा अन्य प्रश्न  »  श्लोक 15
 
 
श्लोक  3.7.15 
विदुर उवाच
संछिन्न: संशयो मह्यं तव सूक्तासिना विभो ।
उभयत्रापि भगवन्मनो मे सम्प्रधावति ॥ १५ ॥
 
शब्दार्थ
विदुर: उवाच—विदुर ने कहा; सञ्छिन्न:—कटे हुए; संशय:—सन्देह; मह्यम्—मेरे; तव—तुम्हारे; सूक्त-असिना—विश्वसनीय शब्द रूपी हथियार से; विभो—हे प्रभु; उभयत्र अपि—ईश्वर तथा जीव दोनों में; भगवन्—हे शक्तिमान; मन:—मन; मे—मेरा; सम्प्रधावति—पूरी तरह प्रवेश करता है ।.
 
अनुवाद
 
 विदुर ने कहा : हे शक्तिशाली मुनि, मेरे प्रभु, आपके विश्वसनीय शब्दों से पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् तथा जीवों से सम्बन्धित मेरे सारे संशय अब दूर हो गये हैं। अब मेरा मन पूरी तरह से उनमें प्रवेश कर रहा है।
 
तात्पर्य
 कृष्ण-विज्ञान या ईश तथा जीवों का विज्ञान इतना सूक्ष्म है कि विदुर जैसे व्यक्ति को भी मैत्रेय मुनि जैसे महापुरुष से परामर्श करना पड़ता है। भगवान् तथा जीव के नित्य सम्बन्ध के विषय में मानसिक चिन्तन करने वाले लोग तरह तरह से सन्देह उत्पन्न करते हैं, किन्तु निर्णायक तथ्य यह है कि ईश्वर तथा जीव का सम्बन्ध स्वामी (सेव्य) तथा सेवक का सम्बन्ध है। भगवान् नित्य स्वामी हैं और जीव नित्य दास है। इस सम्बन्ध का असली ज्ञान इस लुप्त चेतना को इस स्तर तक पुनरुज्जीवित करना है और इस पुनरुज्जीवन की विधि है भगवान् की भक्ति। इस तरह से मैत्रेय मुनि जैसे अधिकारियों से स्पष्ट रूप से जान लेने पर मनुष्य असली ज्ञान को प्राप्त होता है और इस तरह विक्षुब्ध मन को प्रगति के पथ पर स्थिर किया जा सकता है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥