गुरु के चरणों की सेवा करने से मनुष्य उन भगवान् की सेवा में दिव्य भावानुभूति उत्पन्न करने में समर्थ होता है, जो मधु असुर के कूटस्थ शत्रु हैं और जिनकी सेवा से मनुष्य के भौतिक क्लेश दूर हो जाते हैं।
तात्पर्य
मैत्रेय मुनि जैसे प्रामाणिक गुरु की संगति भगवान् की प्रत्यक्ष सेवा के लिए दिव्य आसक्ति प्राप्त करने में परम सहायक हो सकती है। भगवान् मधु असुर के शत्रु हैं, अर्थात् दूसरे शब्दों में अपने शुद्ध भक्त के कष्टों के शत्रु हैं। इस श्लोक में रति रास: शब्द महत्त्वपूर्ण है। भगवान् की सेवा विभिन्न दिव्य रसों (सम्बन्धों) शान्त, वीर, सख्य, वात्सल्य तथा माधुर्य में की जाती है। भगवान् की दिव्य सेवा के मुक्त पद पर स्थित जीव उपर्युक्त रसों में से किसी एक रस के प्रति आकृष्ट होता है और जब यह भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति में लग जाता है, तो भौतिक जगत से उसकी अनुरक्ति स्वत: समाप्त हो जाती है। जैसाकि भगवद्गीता (२.५९) में कहा गया है—रसवर्जं रसोप्यस्य परं दृष्ट्वा निवर्तते।
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