श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 7: विदुर द्वारा अन्य प्रश्न  »  श्लोक 2
 
 
श्लोक  3.7.2 
विदुर उवाच
ब्रह्मन् कथं भगवतश्चिन्मात्रस्याविकारिण: ।
लीलया चापि युज्येरन्निर्गुणस्य गुणा: क्रिया: ॥ २ ॥
 
शब्दार्थ
विदुर: उवाच—विदुर ने कहा; ब्रह्मन्—हे ब्राह्मण; कथम्—कैसे; भगवत:—भगवान् का; चित्-मात्रस्य—पूर्ण आध्यात्मिक का; अविकारिण:—अपरिवर्तित का; लीलया—अपनी लीला से; च—अथवा; अपि—यद्यपि यह ऐसा है; युज्येरन्—घटित होती हैं; निर्गुणस्य—वह जो भौतिक गुणों से रहित है; गुणा:—प्रकृति के गुण; क्रिया:—कार्यकलाप ।.
 
अनुवाद
 
 श्री विदुर ने कहा : हे महान् ब्राह्मण, चूँकि पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् संपूर्ण आध्यात्मिक समष्टि हैं और अविकारी हैं, तो फिर वे प्रकृति के भौतिक गुणों तथा उनके कार्यकलापों से किस तरह सम्बन्धित हैं? यदि यह उनकी लीला है, तो फिर अविकारी के कार्यकलाप किस तरह घटित होते हैं और प्रकृति के गुणों के बिना गुणों को किस तरह प्रदर्शित करते हैं?
 
तात्पर्य
 जैसाकि पिछले अध्याय में वर्णन हो चुका है, परमात्मा अर्थात् परमेश्वर तथा जीवों में अन्तर यह है कि विराट जगत को उत्पन्न करने में भगवान् के कार्यकलाप उनकी विविध शक्तियों के द्वारा सम्पन्न होते हैं, किन्तु यह जगत जीवों को मोहग्रस्त करने वाला होता है। इसलिए भगवान् शक्तियों के स्वामी हैं, जबकि जीव उनके अधीन रहते हैं। विदुर दिव्य कार्यकलापों के विषय में विविध प्रश्न पूछकर इस भ्रान्त धारणा को स्पष्ट कर रहे हैं कि जब भगवान् पृथ्वी पर अपने अवतार के रूप में प्रकट होते हैं या अपनी समस्त शक्तियों समेत स्वयं प्रकट होते हैं, तो वे भी सामान्य जीव की तरह माया के द्वारा प्रभावित होते हैं। सामान्यतया यह उन अल्पज्ञ दार्शनिकों की धारणा है, जो भगवान् तथा जीवों के पद को एक स्तर का मानते हैं। विदुर तो महर्षि मैत्रेय को इन तर्कों का खण्डन करते सुन रहे हैं। इस श्लोक में भगवान् को चिन्मात्र या पूर्णतया आध्यात्मिक बतलाया गया है। भगवान् में अनेक अद्भुत वस्तुओं को, चाहे वे नश्वर हों या स्थायी हों, उत्पन्न करने तथा प्रकट करने की असीम शक्तियाँ हैं। चूँकि यह भौतिक जगत उनकी बहिरंगा शक्ति की सृष्टि है, अतएव यह नश्वर प्रतीत होता है। यह विशेष अन्तरालों के बाद प्रकट होता है, कुछ काल तक स्थित रहता है और पुन: विलय होकर उनकी निजी शक्ति में संरक्षित हो जाता है। जैसाकि भगवद्गीता (८.१९) में वर्णन हुआ है—भूत्वा भूत्वा प्रलीयते। किन्तु उनकी अन्तरंगा शक्ति की सृष्टि, आध्यात्मिक जगत, भौतिक जगत की तरह नश्वर न होकर नित्य है और दिव्य ज्ञान, ऐश्वर्य, शक्ति, बल, सौन्दर्य तथा यश से पूर्ण है। भगवान् की शक्तियों की ऐसी अभिव्यक्तियाँ शाश्वत होती हैं और निर्गुण कहलाती हैं अर्थात् वे भौतिक प्रकृति के समस्त गुणों के प्रभाव से, यहाँ तक कि सतोगुण से भी मुक्त होती हैं। आध्यात्मिक जगत भौतिक सत्त्व से भी दिव्य है, अत: अपरिवर्तनीय है। चूँकि परमेश्वर ऐसे नित्य तथा अपरिवर्तनीय गुणों के भौतिक प्रभाव जैसी किसी भी वस्तु से कभी अधीन नहीं बनते अत: उनके कार्यकलाप तथा रूप का जीवों की तरह माया के अधीन होना किस तरह सोचा जा सकता है? एक जादूगर या बाजीगर अपने कार्यों तथा कलाओं से अनेक चमत्कार प्रदर्शित करता है। वह अपनी जादूगरी से गाय बन सकता है, फिर भी वह गाय नहीं होता, किन्तु साथ ही जादूगर द्वारा प्रदर्शित गाय उससे भिन्न नहीं है। इसी तरह भौतिक शक्ति भगवान् से भिन्न नहीं है, क्योंकि यह उन्हीं की उद्भास है, किन्तु उसी के साथ शक्ति की यह अभिव्यक्ति भगवान् नहीं है। भगवान् का दिव्य ज्ञान तथा शक्ति सदैव वैसे ही बने रहते हैं, वे बदलते नहीं, भले ही वे भौतिक जगत में प्रदर्शित हों। जैसाकि भगवद्गीता में कहा गया है, भगवान् अपनी अन्तरंगा शक्ति द्वारा पृथ्वी पर अवतरित होते हैं, अतएव भौतिक प्रकृति के गुणों द्वारा उनका कलुषित, परिवर्तित या अन्यथा प्रभावित होने का प्रश्न ही नहीं उठता। भगवान् अपनी अन्तरंगा शक्ति के द्वारा सगुण हैं, किन्तु साथ ही वे निर्गुण हैं, क्योंकि वे भौतिक शक्ति के सम्पर्क में नहीं रहते। कारागार के प्रतिबन्ध उन बन्दियों पर लागू होते हैं, जो राजा के कानून द्वारा दण्डित किए गये होते हैं, किन्तु राजा कभी भी कानून की ऐसी जटिलताओं द्वारा प्रभावित नहीं होता, भले ही वह अपनी सदिच्छा से कारागार का दौरा करे। विष्णु पुराण में भगवान् के षडैश्वर्यों को उनसे अभिन्न बताया गया है। दिव्य ज्ञान, बल, ऐश्वर्य, शक्ति, सौन्दर्य तथा त्याग—ये सारे ऐश्वर्य भगवान् से अभिन्न हैं। जब वे इस जगत में ऐसे ऐश्वर्यों का स्वयं प्रदर्शन करते हैं, तो भौतिक प्रकृति के गुणों से उनका कोई सम्बन्ध नहीं होता। चिन्मात्रत्व शब्द इसकी गारंटी है कि भगवान् के कार्यकलाप सदैव दिव्य होते हैं चाहे वे भौतिक जगत में ही प्रदर्शित क्यों न हों। उनके कार्यकलाप स्वयं उन पूर्ण पुरुषोत्तम के तुल्य हैं, अन्यथा शुकदेव गोस्वामी जैसे मुक्त भक्त उनके द्वारा आकृष्ट न होते। विदुर ने पूछा कि भगवान् के कार्यकलाप किस तरह भौतिक प्रकृति के गुणों वाले हो सकते हैं जैसाकि कभी- कभी अल्पज्ञों द्वारा गलत आकलन किया जाता है? भौतिक गुणों की नश्वरता भौतिक देह तथा आत्मा के मध्य अन्तर के कारण है। बद्ध आत्मा के कार्यकलाप भौतिक प्रकृति के गुणों के माध्यम से प्रदर्शित किये जाते हैं, अतएव वे देखने में विकृत प्रतीत होते हैं। किन्तु भगवान् का शरीर तथा स्वयं भगवान् एक हैं और जब भगवान् के कार्यकलाप प्रदर्शित किये जाते हैं, तो वे निश्चय ही, सभी प्रकार से भगवान् से अभिन्न होते हैं। निष्कर्ष यह निकला कि जो लोग भगवान् के कार्यकलापों को भौतिक मानते हैं, वे निश्चय ही भ्रमित हैं।
 
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