जिन लोगों की तपस्या अत्यल्प है वे उन शुद्ध भक्तों की सेवा नहीं कर पाते हैं जो भगवद्धाम अर्थात् वैकुण्ठ के मार्ग पर अग्रसर हो रहे होते हैं। शुद्धभक्त शत प्रतिशत उन परम प्रभु की महिमा के गायन में लगे रहते हैं, जो देवताओं के स्वामी तथा समस्त जीवों के नियन्ता हैं।
तात्पर्य
जैसाकि समस्त अधिकारियों ने संस्तुति की है, मुक्ति का मार्ग महात्मा जनों की सेवा करना है। जहाँ तक भगवद्गीता का सम्बन्ध है, महात्माजन वे शुद्ध भक्त हैं जो ईश्वर के धाम वैकुण्ठ के मार्ग पर चलते हैं और जो शुष्क लाभरहित दर्शन की बातें न करके भगवान् की महिमा का सदैव कीर्तन तथा श्रवण करते हैं। संगति की यह प्रणाली सनातन से संस्तुत होती आई है, किन्तु इस कलह तथा दिखावे के युग में श्री चैतन्य महाप्रभु द्वारा इसकी विशेष रूप से संस्तुति की गई है। अनुकूल तपस्या की निधि न होने पर भी यदि कोई व्यक्ति उन महात्माओं की शरण में जाता है, जो भगवान् की महिमाओं के श्रवण और कीर्तन में लगे रहते हैं, तो वह भगवद्धाम वापस जाने के पथ पर अवश्य प्रगति कर सकता है।
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