हे महर्षि, कृपया मानव समाज के वर्णों तथा आश्रमों के विभाजनों का वर्णन उनके लक्षणों, स्वभाव तथा मानसिक संतुलन एवं इन्द्रिय नियंत्रण के स्वरूपों के रूप के अनुसार करें। कृपया महर्षियों के जन्म तथा वेदों के कोटि-विभाजनों का भी वर्णन करें।
तात्पर्य
मानव समाज के चार वर्ण—ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य तथा शूद चार आश्रम—ब्रह्मचारी, गृहस्थ, वानप्रस्थ तथा संन्यासी—ये सभी विभाजन गुण, शिक्षा, संस्कृति तथा मन एवं इन्द्रियों पर संयम बरतने से उपलब्ध आध्यात्मिक प्रगतियाँ हैं। ये समस्त विभाग प्रत्येक व्यक्ति के विशिष्ट स्वभाव पर आधारित हैं, जन्म के सिद्धान्त पर नहीं। इस श्लोक में जन्म का उल्लेख नहीं हुआ है, क्योंकि जन्म सार हीन है। इतिहास में विदुर शूद्राणी माता से उत्पन्न होने के लिए प्रसिद्ध हैं; फिर भी योग्यता के अनुसार वे ब्राह्मण से भी बढक़र हैं, क्योंकि वे यहाँ पर महर्षि मैत्रेय के शिष्य रूप में दिखते हैं। जब तक कोई कम से कम ब्राह्मण-योग्यता प्राप्त न कर ले तब तक वह वैदिक स्तोत्रों को नहीं समझ सकता। महाभारत भी वेदों का एक विभाग है, किन्तु यह स्त्रियों, शूद्रों तथा द्विजबन्धुओं अर्थात् उच्चवर्ग की अयोग्य सन्तानों के लिए है। समाज का अल्पज्ञ वर्ग केवल महाभारत का अध्ययन करके वैदिक उपदेशों का लाभ उठा सकता है।
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