भगवान् के निष्कलुष भक्तों ने ऐसे ज्ञान के स्रोत का उल्लेख किया है। ऐसे भक्तों की सहायता के बिना कोई व्यक्ति भला किस तरह भक्ति तथा वैराग्य के ज्ञान को पा सकता है?
तात्पर्य
ऐसे अनेक अनुभवहीन व्यक्ति हैं, जो गुरु की सहायता के बिना आत्म-साक्षात्कार के होने की बात कहते हैं। वे गुरु की आवश्यकता की निन्दा करते हैं और इस सिद्धान्त का प्रचार करके कि गुरु आवश्यक नहीं होता उसके स्थान को स्वयं ग्रहण करने का प्रयास करते हैं। किन्तु श्रीमद्भागवत इस दृष्टिकोण को मान्यता नहीं देता। महान् दिव्य विद्वान व्यासदेव को भी गुरु की आवश्यकता पड़ी थी और उन्होंने अपने गुरु नारद के आदेश के अनुसार ही इस महान् ग्रन्थ श्रीमद्भागवत की रचना की। श्री चैतन्य महाप्रभु ने भी जो कि स्वयं भगवान् कृष्ण हैं, गुरु स्वीकार किया। यहाँ तक कि भगवान् कृष्ण ने भी प्रबुद्ध होने के लिए सान्दीपनि मुनि को अपना गुरु बनाया। संसार के सारे आचार्यों तथा सन्तों के गुरु थे। भगवद्गीता में अर्जुन ने श्रीकृष्ण को अपना गुरु स्वीकार किया, यद्यपि ऐसी औपचारिक घोषणा की आवश्यकता नहीं थी। अत: सभी प्रकार से, गुरु स्वीकार करने की आवश्यकता के विषय में कोई सन्देह नहीं रह जाता। एकमात्र शर्त है कि गुरु प्रामाणिक हो अर्थात् गुरु को परम्परा प्रणाली की उचित शृंखला से आया हुआ होना चाहिए। सूरि महान् विद्वान होते हैं, किन्तु वे सदैव अनघ या निष्कलुष नहीं होते। अनघसूरि वह है, जो भगवान् का शुद्ध भक्त होता है। जो भगवान् के शुद्ध भक्त नहीं हैं या जो उनके समकक्ष बनना चाहते हैं, वे अनघसूरि नहीं हैं। शुद्ध भक्तों ने प्रामाणिक शास्त्रों के आधार पर ज्ञान के अनेक ग्रंथ लिखे हैं। श्रील रूप गोस्वामी तथा उनके सहायकों ने श्री चैतन्य महाप्रभु के निर्देशानुसार भावी भक्तों के मार्गदर्शन हेतु विविध ग्रन्थों की रचना की है और जो कोई भी भगवान् के शुद्ध भक्त के पद तक सच्चे मन से अपने को ऊपर ले जाना चाहता है उसे इन ग्रन्थों से लाभ उठाना चाहिए।
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