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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 7: विदुर द्वारा अन्य प्रश्न  »  श्लोक 5
 
 
श्लोक  3.7.5 
देशत: कालतो योऽसाववस्थात: स्वतोऽन्यत: ।
अविलुप्तावबोधात्मा स युज्येताजया कथम् ॥ ५ ॥
 
शब्दार्थ
देशत:—परिस्थितिवश; कालत:—काल के प्रभाव से; य:—जो; असौ—जीव; अवस्थात:—स्थिति से; स्वत:—स्वप्न से; अन्यत:—अन्यों द्वारा; अविलुप्त—लुप्त; अवबोध—चेतना; आत्मा—शुद्ध आत्मा; स:—वह; युज्येत—संलग्न; अजया— अज्ञान द्वारा; कथम्—यह ऐसा किस तरह है ।.
 
अनुवाद
 
 शुद्ध आत्मा विशुद्ध चेतना है और वह परिस्थितियों, काल, स्थितियों, स्वप्नों अथवा अन्य कारणों से कभी भी चेतना से बाहर नहीं होता। तो फिर वह अविद्या में लिप्त क्यों होता है?
 
तात्पर्य
 सजीव प्राणी में चेतना सदैव विद्यमान रहती है और जैसाकि ऊपर कहा गया है किसी भी परिस्थिति में परिवर्तित नहीं होती। जब कोई जीवित व्यक्ति एक स्थान से दूसरे स्थान को जाता है, तो वह सचेत रहता है कि उसने अपनी स्थिति बदल दी है। वह सदैव बिजली की तरह भूत, वर्तमान तथा भविष्य में विद्यमान रहता है। वह अपने भूतकाल की घटनाएँ स्मरण रख सकता है और विगत अनुभव के आधार पर अपने भविष्य के विषय में भी अनुमान लगा सकता है। वह कभी भी अपनी व्यक्तिगत पहचान नहीं भूलता, चाहे वह विकट परिस्थितियों में क्यों न फँसा हो। तो फिर जीव शुद्ध आत्मा के रूप में अपनी असली पहचान को भुला कर पदार्थ के साथ अपनी पहचान कैसे कर सकता है जब तक वह अपने से परे किसी वस्तु द्वारा प्रभावित न हो? निष्कर्ष यह है कि जीव अविद्या शक्ति द्वारा प्रभावित होता है जैसी कि विष्णु पुराण में और श्रीमद्भागवत के आरम्भ में इस की पुष्टि की गई है। भगवद्गीता (७.५) में जीव को परा प्रकृति कहा गया है और विष्णु पुराण में जीव का उल्लेख परा शक्ति के रूप में हुआ है। वह शक्ति के रूप में भगवान् का अंश है, किन्तु शक्ति-मान के रूप में नहीं। शक्ति-मान अनेक शक्तियाँ प्रदर्शित कर सकता है, किन्तु शक्ति किसी भी अवस्था में शक्तिमान की समता नहीं कर सकती। एक शक्ति दूसरी शक्ति द्वारा पराभूत हो सकती है, किन्तु शक्तिमान के लिए सारी ही शक्तियाँ वश में होती हैं। जीवशक्ति या भगवान् की क्षेत्रज्ञ शक्ति में बहिरंगा शक्ति अर्थात् अविद्या-कर्म संज्ञा द्वारा पराभूत होने की प्रवृत्ति रहती है और इस प्रकार वह भौतिक जगत की विषम परिस्थितियों में रखा जाता है। जीव अपनी असली पहचान को तब तक भुला नहीं सकता जब तक वह अविद्या शक्तिद्वारा प्रभावित न हो। चूँकि जीव में अविद्या शक्ति के प्रभाव की ओर झुकाव रहता है, अतएव वह कभी भी परम शक्तिमान के तुल्य नहीं हो सकता।
 
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