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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 7: विदुर द्वारा अन्य प्रश्न  »  श्लोक 7
 
 
श्लोक  3.7.7 
एतस्मिन्मे मनो विद्वन् खिद्यतेऽज्ञानसङ्कटे ।
तन्न: पराणुद विभो कश्मलं मानसं महत् ॥ ७ ॥
 
शब्दार्थ
एतस्मिन्—इसमें; मे—मेरा; मन:—मन; विद्वन्—हे विद्वान; खिद्यते—कष्ट दे रहा है; अज्ञान—अविद्या; सङ्कटे—संकट में; तत्—इसलिए; न:—मेरा; पराणुद—स्पष्ट कीजिये; विभो—हे महान्; कश्मलम्—मोह; मानसम्—मन विषयक; महत्— महान् ।.
 
अनुवाद
 
 हे महान् एवं विद्वान पुरुष, मेरा मन इस अज्ञान के संकट द्वारा अत्यधिक मोहग्रस्त है, इसलिए मैं आप से प्रार्थना करता हूँ कि आप इसको स्पष्ट करें।
 
तात्पर्य
 ऐसा मानसिक मोह, जैसाकि यहाँ पर विदुर द्वारा प्रस्तुत किया गया है, कुछ जीवों के साथ घटित होता है, किन्तु हर एक के साथ नहीं, क्योंकि यदि हर व्यक्ति मोहित होता तो उच्चतर पुरुषों द्वारा उसके समाधान की कोई सम्भावना न रहती।
 
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