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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 7: विदुर द्वारा अन्य प्रश्न  »  श्लोक 8
 
 
श्लोक  3.7.8 
श्रीशुक उवाच
स इत्थं चोदित: क्षत्‍त्रा तत्त्वजिज्ञासुना मुनि: ।
प्रत्याह भगवच्चित्त: स्मयन्निव गतस्मय: ॥ ८ ॥
 
शब्दार्थ
श्री-शुक: उवाच—श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा; स:—वह (मैत्रेय मुनि); इत्थम्—इस प्रकार; चोदित:—विक्षुब्ध किये जाने पर; क्षत्त्रा—विदुर द्वारा; तत्त्व-जिज्ञासुना—सत्य जानने के लिए पूछताछ करने के इच्छुक व्यक्ति द्वारा, जिज्ञासु द्वारा; मुनि:— मुनि ने; प्रत्याह—उत्तर दिया; भगवत्-चित्त:—ईशभावनाभावित; स्मयन्—आश्चर्य करते हुए; इव—मानो; गत-स्मय:—हिचक के बिना ।.
 
अनुवाद
 
 श्रीशुकदेव गोस्वामी ने कहा : हे राजन्, इस तरह जिज्ञासु विदुर द्वारा विक्षुब्ध किये गये मैत्रेय सर्वप्रथम आश्चर्यचकित प्रतीत हुए, किन्तु इसके बाद उन्होंने बिना किसी हिचक के उन्हें उत्तर दिया, क्योंकि वे पूर्णरूपेण ईशभावनाभावित थे।
 
तात्पर्य
 चूँकि महा-मुनि मैत्रेय ईशभावनाभावित थे, अतएव विदुर द्वारा पूछे गये ऐसे परस्पर विरोधी प्रश्नों से उनके आश्चर्यचकित होने का कोई कारण न था। इसीलिए भक्त रूप में ऊपर से आश्चर्य व्यक्त करते हुए भी मानो वे यह न जानते हों कि इन प्रश्नों का कैसे उत्तर दिया जाय वे तुरन्त पूर्णतया स्थिरचित्त हो गये और उचित रीति से विदुर को उत्तर देने लगे। यस्मिन् विज्ञाते सर्वमेवं विज्ञातं भवति। जो भी व्यक्ति भगवद्भक्त होता है, वह कुछ हद तक भगवान् के विषय में जानता है और भगवद्भक्ति उसे भगवत्कृपा से हर बात को समझने में समर्थ बनाती है। यद्यपि भक्त ऊपर से अपने को अज्ञानी व्यक्त करता है, किन्तु वह प्रत्येक जटिल विषय का पूर्ण ज्ञान रखता है।
 
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