स इत्थमुद्वीक्ष्य तदब्जनाल-
नाडीभिरन्तर्जलमाविवेश ।
नार्वाग्गतस्तत्खरनालनाल-
नाभिं विचिन्वंस्तदविन्दताज: ॥ १९ ॥
शब्दार्थ
स:—वह (ब्रह्मा); इत्थम्—इस प्रकार से; उद्वीक्ष्य—विचार करके; तत्—वह; अब्ज—कमल; नाल—डंठल; नाडीभि:— नली द्वारा; अन्त:-जलम्—जल के भीतर; आविवेश—घुस गया; न—नहीं; अर्वाक्-गत:—भीतर जाने के बावजूद; तत्-खर नाल—कमल-नाल; नाल—नली; नाभिम्—नाभि की; विचिन्वन्—सोचते हुए; तत्—वह; अविन्दत—समझ गया; अज:— स्वयंभुव ।.
अनुवाद
इस तरह विचार करते हुए ब्रह्माजी कमल नाल के रन्ध्रों (छिद्रों) से होकर जल के भीतर प्रविष्ट हुए। किन्तु नाल में प्रविष्ट होकर तथा विष्णु की नाभि के निकटतम जाकर भी वे जड़ (मूल) का पता नहीं लगा पाये।
तात्पर्य
मनुष्य अपने निजी प्रयास से भगवान् के पास तक जा सकता है, किन्तु भगवान् की कृपा के बिना वह चरम बिन्दु तक नहीं पहुँच सकता। भगवान् विषयक यह समझ एकमात्र भक्तियोग से सम्भव है जैसाकि भगवद्गीता (१८.५५) में पुष्टि हुई है—भक्त्या मामभिजानाति यावान् यश्चास्मि तत्त्वत:।
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