भगवान् के दिव्य शरीर की कान्ति मूँगे के पर्वत की शोभा का उपहास कर रही थी। मूँगे का पर्वत संध्याकालीन आकाश द्वारा सुन्दर ढंग से वस्त्राभूषित होता है, किन्तु भगवान् का पीतवस्त्र उसकी शोभा का उपहास कर रहा था। इस पर्वत की चोटी पर स्वर्ण है, किन्तु रत्नजटित भगवान् का मुकुट इसकी हँसी उड़ा रहा था। पर्वत के झरने, जड़ी-बूटियाँ आदि फूलों के दृश्य के साथ मालाओं जैसे लगते हैं, किन्तु भगवान् का विराट शरीर तथा उनके हाथ-पाँव रत्नों, मोतियों, तुलसीदल तथा फूलमालाओं से अलंकृत होकर उस पर्वत के दृश्य का उपहास कर रहे थे।
तात्पर्य
प्रकृति का दृश्यात्मक सौन्दर्य जो सबों को चकित करता है भगवान् के दिव्य शरीर का विकृत प्रतिबिम्ब माना जा सकता है। अत: जो व्यक्ति भगवान् के सौन्दर्य द्वारा आकृष्ट होता है, वह भौतिक प्रकृति के सौन्दर्य से आकृष्ट नहीं होता, यद्यपि वह इस सौन्दर्य को कम नहीं समझता। भगवद्गीता (२.५९) में वर्णन आया है कि जो परम द्वारा आकृष्ट है, वह अन्य किसी निकृष्ट वस्तु द्वारा आकृष्ट नहीं होता।
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