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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 8: गर्भोदकशायी विष्णु से ब्रह्मा का प्राकट्य  »  श्लोक 26
 
 
श्लोक  3.8.26 
पुंसां स्वकामाय विविक्तमार्गै-
रभ्यर्चतां कामुदुघाङ्‌घ्रि पद्मम् ।
प्रदर्शयन्तं कृपया नखेन्दु-
मयूखभिन्नाङ्गुलिचारुपत्रम् ॥ २६ ॥
 
शब्दार्थ
पुंसाम्—मनुष्यों का; स्व-कामाय—अपनी इच्छा के अनुसार; विविक्त-मार्गै:—शक्ति मार्ग द्वारा; अभ्यर्चताम्—पूजित; काम- दुघ-अङ्घ्रि-पद्मम्—भगवान् के चरणकमल जो मनवांछित फल देने वाले हैं; प्रदर्शयन्तम्—उन्हें दिखलाते हुए; कृपया— अहैतुकी कृपा द्वारा; नख—नाखून; इन्दु—चन्द्रमा सदृश; मयूख—किरणें; भिन्न—विभाजित; अङ्गुलि—अँगुलियाँ; चारु- पत्रम्—अतीव सुन्दर ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् ने अपने चरणकमलों को उठाकर दिखलाया। उनके चरणकमल समस्त भौतिक कल्मष से रहित भक्ति-मय सेवा द्वारा प्राप्त होने वाले समस्त वरों के स्रोत हैं। ऐसे वर उन लोगों के लिए होते हैं, जो उनकी पूजा शुद्ध भक्तिभाव में करते हैं। उनके पाँव तथा हाथ के चन्द्रमा सदृश नाखूनों से निकलने वाली दिव्य किरणों की प्रभा (छटा) फूल की पंखुडिय़ों जैसी प्रतीत हो रही थी।
 
तात्पर्य
 भगवान् हर एक की इच्छाओं की पूर्ति उसकी इच्छानुसार करते हैं। शुद्ध भक्तजन भगवान् की दिव्य सेवा प्राप्त करने में रुचि रखते हैं, जो उनसे अभिन्न होती है। अतएव भगवान् ही शुद्ध भक्तों की एकमात्र इच्छा हैं और भक्ति उनकी कृपा प्राप्त करने की एकमात्र निष्कलुष विधि है। भक्तिरसामृत सिन्धु (१.१.११) में श्रील जीव गोस्वामी कहते हैं कि शुद्ध भक्ति ज्ञानकर्माद्यनावृतम् है— शुद्ध भक्ति में ज्ञान तथा सकाम कर्म का लेश भी नहीं रहता। ऐसी भक्ति शुद्ध भक्त को उच्चतम फल अर्थात् पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण का प्रत्यक्ष सान्निध्य दिलाने में समर्थ है। गोपालतापनी उपनिषद् के अनुसार भगवान् ने अपने चरणकमल की कई हजार पंखुडिय़ों में से एक का दर्शन कराया। कहा गया है ब्राह्मणोऽसावनवरतं मे ध्यात: स्तुत:परार्धान्ते सोऽबुध्यत गोपवेशो मे पुरस्तात् आविर्बभूव। लाखों वर्षों तक तपस्या करते रहने पर ब्रह्माजी गोपबाल वेशधारी श्रीकृष्ण के रूप में भगवान् के दिव्य स्वरूप को समझ पाये। इस तरह उन्होंने अपने अनुभवों को ब्रह्म-संहिता में सुप्रसिद्ध स्तुति गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि में अंकित किया है।
 
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