श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 8: गर्भोदकशायी विष्णु से ब्रह्मा का प्राकट्य  »  श्लोक 29
 
 
श्लोक  3.8.29 
परार्ध्यकेयूरमणिप्रवेक-
पर्यस्तदोर्दण्डसहस्रशाखम् ।
अव्यक्तमूलं भुवनाङ्‌घ्रि पेन्द्र-
महीन्द्रभोगैरधिवीतवल्शम् ॥ २९ ॥
 
शब्दार्थ
परार्ध्य—अत्यन्त मूल्यवान; केयूर—आभूषण; मणि-प्रवेक—अत्यन्त मूल्यवान मणि; पर्यस्त—फैलाते हुए; दोर्दण्ड—भुजाएँ; सहस्र-शाखम्—हजारों शाखाओं से युक्त; अव्यक्त-मूलम्—आत्मस्थित; भुवन—विश्व; अङ्घ्रिप—वृक्ष; इन्द्रम्—स्वामी; अहि-इन्द्र—अनन्तदेव; भोगै:—फनों से; अधिवीत—घिरा; वल्शम्—कंघा ।.
 
अनुवाद
 
 जिस तरह चन्दन वृक्ष सुगन्धित फूलों तथा शाखाओं से सुशोभित रहता है उसी तरह भगवान् का शरीर मूल्यवान मणियों तथा मोतियों से अलंकृत था। वे आत्म-स्थित (अव्यक्त मूल) वृक्ष और विश्व के अन्य सभी के स्वामी थे। जिस तरह चन्दन वृक्ष अनेक सर्पों से आच्छादित रहता है उसी तरह भगवान् का शरीर भी अनन्त के फनों से ढका था।
 
तात्पर्य
 यहाँ पर अव्यक्त-मूलम् शब्द महत्त्वपूर्ण है। सामान्यतया कोई भी व्यक्ति वृक्ष की जड़ें नहीं देख सकता। किन्तु जहाँ तक भगवान् का सम्बन्ध है वे स्वयं अपनी जड़ (मूल) हैं, क्योंकि उनके (चिरंतन) बने रहने का उनके अतिरिक्त कोई और पृथक् कारण नहीं है। वेदों में कहा गया है कि भगवान् स्वाश्रयाश्रय हैं। वे अपने निजी आश्रय हैं और उनका कोई अन्य आश्रय नहीं है। अतएव अव्यक्त का अर्थ स्वयं भगवान् और उन के अतिरिक्त और कोई नहीं है।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥