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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 8: गर्भोदकशायी विष्णु से ब्रह्मा का प्राकट्य  »  श्लोक 5
 
 
श्लोक  3.8.5 
स्वर्धुन्युदार्द्रै: स्वजटाकलापै-
रुपस्पृशन्तश्चरणोपधानम् ।
पद्मं यदर्चन्त्यहिराजकन्या:
सप्रेमनानाबलिभिर्वरार्था: ॥ ५ ॥
 
शब्दार्थ
स्वर्धुनी-उद—गंगा के जल से; आर्द्रै:—भीगे हुए; स्व-जटा—बालों का गुच्छा; कलापै:—सिर पर स्थित; उपस्पृशन्त:—इस तरह छूने से; चरण-उपधानम्—उनके चरणों की शरण; पद्मम्—कमल चरण; यत्—जो; अर्चन्ति—पूजा करते हैं; अहि राज—सर्पों का राजा; कन्या:—पुत्रियाँ; स-प्रेम—अतीव भक्ति समेत; नाना—विविध; बलिभि:—साज-सामग्री द्वारा; वर- अर्था:—पतियों की इच्छा से ।.
 
अनुवाद
 
 चूँकि मुनिगण गंगानदी के माध्यम से उच्चतर लोकों से निम्नतर भाग में आये थे, फलस्वरूप उनके सिर के बाल भीगे हुए थे। उन्होंने भगवान् के उन चरणकमलों का स्पर्श किया जिनकी पूजा नागराज की कन्याओं द्वारा अच्छे पति की कामना से विविध सामग्री द्वारा की जाती है।
 
तात्पर्य
 गंगा का जल सीधे विष्णु के चरणकमलों से प्रवाहित होता है और उसका मार्ग ब्रह्माण्ड के उच्चतम लोक से लेकर निम्नतम लोक तक जाता है। मुनिगण प्रवाहित जल का लाभ उठाकर सत्यलोक से नीचे आये—परिवहन की यह विधि योग शक्ति से ही सम्भव हो सकी। यदि कोई नदी हजारों मील तक प्रवाहित होती है, तो पूर्णयोगी इसके जल में केवल डुबकी लगाकर एक स्थान से दूसरे स्थान पर तुरन्त पहुँच सकता है। गंगा ही एकमात्र ऐसी नदी है, जो समूचे ब्रह्माण्ड में प्रवाहित होती है और मुनिगण इस पवित्र नदी के माध्यम से ब्रह्माण्ड भर में यात्रा करते हैं। यह कथन कि उनके बाल गीले थे यह सूचित करता है कि विष्णु के चरणकमल से सीधे निकले जल (गंगा) से ही बाल गीले थे। जो भी व्यक्ति अपने सिर से गंगा जल का स्पर्श करता है, वह प्रत्यक्ष रूप से भगवान् के चरणकमलों का स्पर्श करता है और सम्पूर्ण पापकृत्यों के फलों से मुक्त हो जाता है। यदि कोई व्यक्ति गंगा में स्नान करने या समस्त पापों के धुल जाने के बाद फिर से पापकर्म करने से अपने को बचाता है, तो निश्चित रूप से उसका उद्धार हो जाता है। किन्तु यदि वह पुन: पापकर्म करने लगता है, तो उसका गंगा-स्नान हाथी के स्नान की तरह है, जो नदी में ठीक से नहाता है, किन्तु बाद में भूमि की धूल से अपने शरीर को धूसरित करके सारा किया कराया बिगाड़ देता है।
 
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