श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 8: गर्भोदकशायी विष्णु से ब्रह्मा का प्राकट्य  »  श्लोक 7
 
 
श्लोक  3.8.7 
प्रोक्तं किलैतद्भगवत्तमेन
निवृत्तिधर्माभिरताय तेन ।
सनत्कुमाराय स चाह पृष्ट:
सांख्यायनायाङ्ग धृतव्रताय ॥ ७ ॥
 
शब्दार्थ
प्रोक्तम्—कहा गया था; किल—निश्चय ही; एतत्—यह; भगवत्तमेन—भगवान् संकर्षण द्वारा; निवृत्ति—वैराग्य; धर्म- अभिरताय—इस धार्मिक व्रत को धारण करने वाले के लिए; तेन—उसके द्वारा; सनत्-कुमाराय—सनत् कुमार को; स:— उसने; च—भी; आह—कहा; पृष्ट:—पूछे जाने पर; साङ्ख्यायनाय—सांख्यायन नामक महर्षि को; अङ्ग—हे विदुर; धृत व्रताय—व्रत धारण करने वाले को ।.
 
अनुवाद
 
 इस तरह भगवान् संकर्षण ने उन महर्षि सनत्कुमार से श्रीमद्भागवत का भावार्थ कहा जिन्होंने पहले से वैराग्य का व्रत ले रखा था। सनत्कुमार ने भी अपनी पारी में सांख्यायन मुनि द्वारा पूछे जाने पर श्रीमद्भागवत को उसी रूप में बतलाया जिस रूप में उन्होंने संकर्षण से सुना था।
 
तात्पर्य
 परम्परा प्रणाली की यही विधि है। यद्यपि सुप्रसिद्ध सनत् कुमार जीवन की सिद्ध अवस्था में थे फिर भी उन्होंने भगवान् संकर्षण से श्रीमद्भागवत का सन्देश सुना। इसी तरह सांख्यायन ऋषि द्वारा पूछे जाने पर सनत्कुमार ने भगवान् संकर्षण से जो सन्देश सुना था उसे कह सुनाया। दूसरे शब्दों में, जब तक कोई उचित अधिकारी से नहीं सुन लेता, तब तक वह उपदेशक नहीं बन सकता। इसीलिए भक्तियोग में नौ बातों में से दो बातें—श्रवण तथा कीर्तन—सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण हैं। ठीक से सुने बिना कोई व्यक्ति वैदिक ज्ञान के सन्देश का प्रचार नहीं कर सकता।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥