जैसाकि पिछले श्लोक में वर्णन आया है, जिन लोगों को भगवान् की भक्ति में रुचि नहीं होती वे भौतिक कार्यों में लगे रहते हैं। उनमें से अधिकांश लोग दिन के समय कठोर शारीरिक श्रम में लगे रहते हैं। उनकी इन्द्रियाँ भारी औद्योगिक संस्थान के भीमकाय कारखानों में कष्टप्रद कार्य करने में बुरी तरह लगी रहती हैं। ऐसे कारखानों के मालिक अपने औद्योगिक उत्पादों के लिए बाजार खोजने में लगे रहते हैं और मजदूर वर्ग विस्तृत उत्पादन में लगे रहते हैं जिसमें विशाल यांत्रिक व्यवस्था रहती है। कारखाना या फैक्ट्री नरक का दूसरा नाम है। रात्रि होने पर बुरी तरह से व्यस्त मनुष्य अपनी थकी हुई इन्द्रियों को तुष्ट करने के लिए शराब तथा स्त्रियों की शरण में जाते हैं, किन्तु तब भी उन्हें अच्छी नींद नहीं आती, क्योंकि उनकी नाना प्रकार की मानसिक चिन्ताओं वाली योजनाएँ उनकी नींद में निरन्तर व्यवधान डालती रहती हैं। उनिद्र रोग से पीडि़त होने के कारण कभी कभी पर्याप्त आराम के अभाव में उन्हें प्रात:काल नींद सताने लगती है। आधिदैविक शक्ति की व्यवस्था द्वारा संसार के बड़े बड़े विज्ञानी तथा चिन्तक भी अपनी विविध योजनाओं के कारण हताश हो जाते हैं और इस तरह जन्म-जन्मांतर इस भौतिक जगत में सड़ते रहते हैं। भले ही कोई महान् विज्ञानी जगत के त्वरित संहार हेतु परमाणु शक्ति में खोजें करता हो और उसे अपनी सेवा (या कुसेवा) की मान्यता स्वरूप सर्वोत्कृष्ट पुरस्कार प्रदान किया जाय, किन्तु उसे भी भौतिक प्रकृति के अतिमानवीय नियम के अन्तर्गत बारम्बार जन्म- मृत्यु के चक्र में घूमते हुए अपने कर्म का फल भोगना पड़ता है। ऐसे सारे लोग जो कि भक्ति के सिद्धान्त के विरुद्ध होते हैं निश्चित रूप से उन्हें इस भौतिक जगत में चक्कर लगाना पड़ता है। इस श्लोक में इसका विशेष उल्लेख है कि वे ऋषि भी, जो भगवान् की भक्ति के सिद्धान्त से विमुख रहते हैं, भौतिक जगत के अन्तर्गत बन्धन भोगने के लिए विवश हैं। न केवल इस युग में, अपितु इसके पूर्व भी ऐसे अनेक ऋषि हुए हैं जिन्होंने परमेश्वर की भक्ति का सन्दर्भ दिये बिना अपनी धर्म प्रणालियों का अविष्कार करने का प्रयास किया, किन्तु भगवद्भक्ति के बिना कोई भी धार्मिक सिद्धान्त नहीं चल सकता। परमेश्वर सम्पूर्ण जीव जगत के नायक हैं और कोई भी व्यक्ति उनके तुल्य या उनसे बढक़र नहीं हो सकता। यहाँ तक कि भगवान् के निर्विशेष रूप तथा सर्वव्यापक अन्तर्यामी रूप भी परमेश्वर की बराबरी नहीं कर सकते। अतएव भक्ति के बिना जीवों की प्रगति हेतु कोई धर्म या असली दर्शन पद्धति सम्भव नहीं हो सकती। वे निर्विशेषवादी जो आत्म-मोक्ष के लिए तपस्या करने में काफी कष्ट उठाते हैं भले ही निर्विशेष ब्रह्मज्योति तक पहुँच लें, किन्तु अन्तत: भक्ति में स्थित न होने से वे पुन: भौतिक जगत में आ गिरते हैं और पुन: भवबन्धन को भोगते हैं। इसकी पुष्टि इस प्रकार होती है—
येऽन्येऽरविन्दाक्ष विमुक्तमानिनस्त्वय्यस्तभावादविशुद्धबुद्धय:।
आरुह्य कृच्छ्रेण परं पदं तत: पतन्त्यधोऽनादृतयुष्मदङ्घ्रिय: ॥
“वे व्यक्ति जो भगवान् की भक्ति के बिना ही मुक्त होने के झूठे बहकावे में रहते हैं, ब्रह्मज्योति के लक्ष्य तक भले ही पहुँच लें, किन्तु अपनी अशुद्ध चेतना के कारण तथा वैकुण्ठलोकों में आश्रय के अभाव में तथाकथित मुक्त लोग पुन: भौतिक संसार में आ गिरते हैं।” (भागवत १०.२.३२) इसलिए कोई भी व्यक्ति भगवान् की भक्ति के सिद्धान्त के बिना किसी धर्म-प्रणाली का निर्माण नहीं कर सकता। जैसाकि श्रीमद्भागवत के छठे स्कन्ध में हमें मिलता है, धर्म के प्रवर्तक स्वयं भगवान् हैं। भगवद्गीता में भी हम पाते हैं कि भगवान् की शरण ग्रहण करने के अतिरिक्त धर्म के अन्य सभी रूपों की भर्त्सना की गई है। कोई भी प्रणाली जो मनुष्य को भगवद्भक्ति तक ले जाती है, वही असली धर्म या दर्शन है। छठे स्कन्ध में हम अश्रद्धालु जीवों के नियंत्रक यमराज का निम्नलिखित कथन पाते हैं—
धर्मं तु साक्षाद् भगवत्प्रणीतं न वै विधुर्ऋषयो नापि देवा:।
न सिद्धमुख्या असुरा मनुष्या: कुतो नु विद्याधर चारणादय: ॥
स्वयम्भूर्नारद: शम्भु: कुमार: कपिलो मनु:।
प्रह्लादो जनको भीष्मो बलिर्वैयासकिर्वयम् ॥
द्वादशैते विजानीमो धर्मं भागवतं भटा:।
गुह्यं विशुद्धं दुर्बोधं यं ज्ञात्वामृतमश्नुते ॥
“धर्म के सिद्धान्तों का प्रवर्तन भगवान् द्वारा होता है और ऋषियों तथा देवताओं सहित अन्य कोई भी ऐसे सिद्धान्तों का निर्माण नहीं कर सकता। चूँकि बड़े-बड़े ऋषि तथा देवता तक धर्म के ऐसे सिद्धान्तों का प्रवर्तन करने के अधिकारी नहीं होते तो अन्यों के विषय में—तथाकथित योगियों, असुरों, मनुष्यों, तथा निम्नलोक के निवासी विद्याधरों तथा चारणों के विषय में—क्या कहा जा सकता है? ब्रह्मा, नारद, शिवजी, कुमार, कपिल, मनु, प्रह्लाद महाराज, जनक महाराज, भीष्म, बलि, शुकदेव गोस्वामी तथा यमराज—ये बारह अभिकर्ता भगवान् द्वारा धर्म के सिद्धान्तों के विषय में बोलने तथा उसका प्रचार करने के लिए अधिकृत हैं।”(भागवत ६.३.१९-२१) धर्म के सिद्धान्त किसी सामान्य जीव के लिए खुले नहीं होते। वे मानव को नैतिकता के स्तर पर लाने के लिए होते हैं। अहिंसा इत्यादि तो दिग्भ्रमित व्यक्तियों के लिए आवश्यक हैं, क्योंकि जब तक कोई व्यक्ति नैतिक तथा अहिंसक नहीं बनता वह धर्म के सिद्धान्तों को नहीं समझ सकता। वास्तव में धर्म क्या है उसे समझ पाना उस व्यक्ति के लिए भी अत्यन्त कठिन होता है, जो नैतिकता तथा अहिंसा के सिद्धान्तों को प्राप्त होता है। यह अत्यन्त गुह्य है, क्योंकि धर्म के असली सिद्धान्तों से अवगत होते ही मनुष्य मुक्त होकर आनन्द तथा ज्ञान का शाश्वत जीवन बिताता है। अतएव जो व्यक्ति भगवान् की भक्ति के सिद्धान्तों को प्राप्त नहीं है उसे अपने को अबोध जनता का धार्मिक नेता बनने का स्वाँग नहीं रचना चाहिए। ईशोपनिषद् ने निम्नलिखित मंत्र में इस बकवास का बलपूर्वक निषेध किया है—
अन्धं तम: प्रविशन्ति येऽसम्भूतिमुपासते।
ततो भूय इव ते तमो य उ सम्भूत्यां रता: ॥
(ईशोपनिषद् १२) अत:धर्म के नाम पर भक्ति के असली धार्मिक सिद्धान्तों का सन्दर्भ दिये बिना जो अन्य लोगों को गुमराह बनाता है उस व्यक्ति से श्रेष्ठतर, धर्म के सिद्धान्तों से अनजान व्यक्ति है, जो धर्म के मामलों में कुछ भी नहीं करता। धर्म के ऐसे तथाकथित नेताओं की भर्त्सना ब्रह्मा तथा अन्य महाजनों द्वारा अवश्य की जाएगी।