त्वं भक्तियोगपरिभावितहृत्सरोज
आस्से श्रुतेक्षितपथो ननु नाथ पुंसाम् ।
यद्यद्धिया त उरुगाय विभावयन्ति
तत्तद्वपु: प्रणयसे सदनुग्रहाय ॥ ११ ॥
शब्दार्थ
त्वम्—तुमको; भक्ति-योग—भक्ति में; परिभावित—शत प्रतिशत लगे रहकर; हृत्—हृदय के; सरोजे—कमल में; आस्से— निवास करते हो; श्रुत-ईक्षित—कान के माध्यम से देखा हुआ; पथ:—पथ; ननु—अब; नाथ—हे स्वामी; पुंसाम्—भक्तों का; यत्-यत्—जो जो; धिया—ध्यान करने से; ते—तुम्हारा; उरुगाय—हे बहुख्यातिवान्; विभावयन्ति—विशेष रूप से चिन्तन करते हैं; तत्-तत्—वही वही; वपु:—दिव्य स्वरूप; प्रणयसे—प्रकट करते हो; सत्-अनुग्रहाय—अपनी अहैतुकी कृपा दिखाने के लिए ।.
अनुवाद
हे प्रभु, आपके भक्तगण प्रामाणिक श्रवण विधि द्वारा कानों के माध्यम से आपको देख सकते हैं और इस तरह उनके हृदय विमल हो जाते हैं तथा आप वहाँ पर अपना स्थान ग्रहण कर लेते हैं। आप अपने भक्तों पर इतने दयालु हैं कि आप अपने को उस अध्यात्म के विशेष नित्य रूप में प्रकट करते हैं जिसमें वे सदैव आपका चिन्तन करते हैं।
तात्पर्य
यहाँ पर यह कथन कि भगवान् उस रूप में भक्त के समक्ष प्रकट होते हैं जिस रूप में वह उनकी पूजा करना चाहता है, यह संकेत करता है कि भगवान् भक्त की इच्छा के अधीन हो जाते हैं—इतने अधिक कि वे भक्त की माँग के अनुसार अपना विशिष्ट रूप प्रकट करते हैं। भगवान् भक्त की इस माँग को पूरा करते हैं, क्योंकि वे भक्त की दिव्य प्रेमपूर्ण सेवा के अनुसार लचीले होते हैं। इसकी पुष्टि भगवद्गीता (४.११) में भी हुई है—ये यथा मां प्रपद्यन्ते तांस्तथैव भजाम्यहम्। किन्तु यह हमें ध्यान रखना चाहिए कि भगवान् कभी भी भक्त के आदेशवाहक नहीं होते। इस श्लोक में इसका विशेष उल्लेख है—त्वं भक्तियोगपरिभावित। यह उस दक्षता का सूचक है, जो भगवान् की परिपक्व प्रेमाभक्ति सम्पन्न करने से प्राप्त की जाती है। यह प्रेमावस्था श्रद्धा से प्रेम की क्रमश: विकास-विधि द्वारा प्राप्त की जाती है। श्रद्धा से मनुष्य प्रामाणिक भक्तों की संगति करता है और ऐसी संगति से वह प्रामाणिक भक्ति में संलग्न हो सकता है, जिसमें उचित दीक्षा तथा शास्त्र द्वारा संस्तुत मूल भक्तिमय कार्यों की सम्पन्नता निहित रहती है। इसे यहाँ पर श्रुतेक्षित शब्द द्वारा स्पष्ट रूप से सूचित किया गया है। श्रुतेक्षित मार्ग में उन प्रामाणिक भक्तों से सुनना होता है, जो वैदिक ज्ञान में पारंगत होते हैं और संसारी आवेश से मुक्त होते हैं। इस प्रामाणिक श्रवण विधि से नवदीक्षित भक्त समस्त भौतिक गंदगी से रहित हो जाता है और इस तरह वह भगवान् के अनेक दिव्य रूपों में से किसी एक के प्रति अनुरक्त हो जाता है जिनका वेदों में वर्णन हुआ है।
भगवान् के किसी विशेष रूप के प्रति भक्त की यह आसक्ति स्वाभाविक प्रवृत्ति के कारण होती है। प्रत्येक जीव मूलत: किसी विशेष प्रकार की दिव्य सेवा के साथ जुड़ा हुआ है, क्योंकि वह भगवान् का नित्य दास है। श्री चैतन्य महाप्रभु कहते हैं कि जीव पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् श्रीकृष्ण का नित्य दास है। अत: हर जीव का भगवान् के साथ एक विशेष प्रकार का नित्य-दास का सम्बन्ध होता है। यह विशेष आसक्ति भगवान् की वैधी भक्ति के अभ्यास से जागृत होती है और इस तरह भक्त भगवान् के नित्य रूप के साथ उसी तरह जुड़ जाता है, जिस तरह कि पहले से ही नित्य आसक्त व्यक्ति होता है। भगवान् के ऐसे विशेष रूप के प्रति यह आसक्ति स्वरूप सिद्धि कहलाती है। भगवान् शुद्ध भक्त के इच्छित नित्य रूप में भक्त के हृदय कमल में आसीन हो जाते हैं और इस तरह भगवान् भक्त से विलग नहीं होते जैसी कि पिछले श्लोक में पुष्टि की गई है। किन्तु भगवान् किसी आकस्मिक या अप्रामाणिक पूजक के समक्ष अपना उद्धाटन नहीं करते। इसकी पुष्टि भगवद्गीता (७.२५) में हुई है—नाहं प्रकाश: सर्वस्य योगमायासमावृत:। प्रत्युत भगवान् अपनी योगमाया द्वारा उन अभक्तों या आकस्मिक भक्तों से अपने को गोपित रखते हैं, जो अपनी इन्द्रियतृप्ति की सेवा में लगे होते हैं। भगवान् कभी भी उन छद्म भक्तों को दृष्टिगोचर नहीं होते जो विश्व के मामलों का भार सँभालने वाले देवताओं की पूजा करते हैं। निष्कर्ष यह निकला कि भगवान् कभी छद्म भक्त के आदेशवाहक नहीं बन सकते, अपितु वे उस शुद्ध अबद्ध भक्त की इच्छाओं को पूरा करने के लिए सदैव तैयार रहते हैं, जो समस्त प्रकार के भौतिक दूषण से रहित होता है।
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