सामान्य लोग निरर्थक कार्य में लगे हुए हैं। वे असली लाभप्रद कार्य के प्रति, जो भगवान् की भक्ति है और पारिभाषिक रूप में अर्चना विधान कहलाते हैं, बिल्कुल लापरवाह बने रहते हैं। अर्चना विधानों का उपदेश स्वयं भगवान् ने नारद पांचरात्र में किया है और उनका बुद्धिमान लोगों द्वारा कड़ाई से पालन किया जाता है, जो यह भलीभाँति जानते हैं कि जीवन का चरम उद्देश्य उन भगवान् विष्णु तक पहुँचना है, जो विराट जगत रूपी वृक्ष की जड़ हैं। भागवत तथा भगवद्गीता में भी ऐसे विधानों का स्पष्ट उल्लेख मिलता है। मूर्ख लोग यह नहीं जानते कि उनका निजी हित विष्णु- अनुभूति में है। भागवत (७.५.३०-३२) में कहा गया है— मतिर्न कृष्णे परत: स्वतो वा मिथोऽभिपद्येत गृहव्रतानाम्।
अदान्तगोभिर्विशतां तमिस्रं पुन: पुनश्चर्वितचर्वणानाम् ॥
न ते विदु: स्वार्थगतिं हि विष्णुं दुराशया ये बहिरर्थमानिन:।
अन्धा यथान्धैरुपनीयमानास्तेऽपीशतन्त्यामुरुदाम्नि बद्धा: ॥
नैषां मतिस्तावदुरुक्रमाङ्घ्रिं स्पृशत्यनर्थापगमो यदर्थ:।
महीयसां पादरजोऽभिषेकं निष्किंचनानां न वृणीत यावत् ॥
“जो लोग मिथ्या भौतिक सुख में पूरी तरह सडऩे के लिए कटिबद्ध हैं, वे न तो शिक्षकों के उपदेशों द्वारा, न आत्म-साक्षात्कार द्वारा, न ही शिष्टतापूर्ण विचार-विमर्श के द्वारा कृष्णोन्मुख हो सकते हैं। वे बिना लगाम की इन्द्रियों द्वारा अज्ञान के सबसे अंधकारमय क्षेत्र में घसीट कर ले जाए जाते हैं और इस तरह वे चबाये हुए को चबाने में अन्धाधुन्ध लगे रहते हैं।”
“वे अपने मूर्खतापूर्ण कर्मों के कारण यह नहीं जान पाते हैं कि मानव जीवन का चरम लक्ष्य विराट जगत के स्वामी विष्णु को प्राप्त करना है। इस तरह उनका वह जीवन-संघर्ष भौतिक सभ्यता की गलत दिशा में होता है, जो बहिरंगा शक्ति के अधीन है। उन्हें अपने ही जैसे मूर्ख व्यक्तियों के द्वारा मार्ग दिखलाया जाता है जिस तरह यदि एक अन्धा व्यक्ति दूसरे को रास्ता दिखलाता है, तो दोनों खंदक में जा गिरते हैं।”
“ऐसे मूर्ख लोग उस परम शक्तिमान के कार्यकलापों की ओर जो उनके मूर्खतापूर्ण कर्मों को वस्तुत: निष्प्रभावित करने वाला है, आकृष्ट नहीं हो सकते जब तक कि उनमें यह बुद्धि नहीं आ जाती कि उनका मार्गदर्शन उन महात्माओं द्वारा हो जो भौतिक आसक्ति से पूर्णतया मुक्त हैं।”
भगवद्गीता में भगवान् हर एक से अन्य सारे वृत्तिपरक कार्यों को त्यागने और अर्चना कार्यों में या भगवान् को प्रसन्न करने में पूरी तरह लगने के लिए आदेश देते हैं। किन्तु ऐसे अर्चना-कार्य की ओर प्राय: कोई भी आकृष्ट नहीं होता। हर व्यक्ति न्यूनाधिक रूप में ऐसे कार्यों के प्रति आकृष्ट होता है, जो परमेश्वर के प्रति विद्रोहात्मक कार्य हैं। ज्ञान तथा योग की पद्धतियाँ भी अप्रत्यक्ष रूप से भगवान् के प्रति विद्रोहात्मक कार्य हैं। भगवान् की अर्चना के अतिरिक्त अन्य कोई कर्म शुभ नहीं है। कभी-कभी ज्ञान तथा योग को अर्चना के क्षेत्र में माना जाता है, जब चरम लक्ष्य एकमात्र विष्णु होता है, अन्यथा नहीं। निष्कर्ष यह है कि एकमात्र भगवद्भक्त ही मोक्ष के योग्य प्रामाणिक मानव है। अन्य लोग व्यर्थ ही, बिना किसी लाभ के, जीवन-संघर्ष में रत हैं।