तिर्यक्—मनुष्येतर पशु; मनुष्य—मानव आदि.; विबुध-आदिषु—देवताओं इत्यादि; जीव-योनिषु—विभिन्न जीव योनियों में; आत्म—आत्मा; इच्छया—इच्छा द्वारा; आत्म-कृत—स्वत:उत्पन्न; सेतु—दायित्व; परीप्सया—बनाये रखने की इच्छा से; य:— जो; रेमे—दिव्य लीला सम्पन्न करते हुए; निरस्त—अधिक प्रभावित हुए बिना; विषय:—भौतिक कल्मष; अपि—निश्चय ही; अवरुद्ध—प्रकट; देह:—दिव्य शरीर; तस्मै—उस; नम:—मेरा नमस्कार; भगवते—भगवान् को; पुरुषोत्तमाय—आदि भगवान् ।.
अनुवाद
हे प्रभु, आप अपनी दिव्य लीलाएँ सम्पन्न करने हेतु स्वेच्छा से विविध जीवयोनियों में, मनुष्येतर पशुओं में तथा देवताओं में प्रकट होते हैं। आप भौतिक कल्मष से तनिक भी प्रभावित नहीं होते। आप धर्म के अपने सिद्धान्तों के दायित्वों को पूरा करने के लिए ही आते हैं, अत:, हे परमेश्वर ऐसे विभिन्न रूपों को प्रकट करने के लिए मैं आपको नमस्कार करता हूँ।
तात्पर्य
विभिन्न जीवयोनियों में भगवान् के अवतार सर्वथा दिव्य हैं। वे कृष्ण, राम इत्यादि अपने अवतारों में मनुष्य रूप में प्रकट होते हैं, किन्तु वे मनुष्य नहीं हैं। जो व्यक्ति उन्हें सामान्य मनुष्य समझने की भूल करता है, वह निश्चय ही अल्पज्ञ है जैसाकि भगवद्गीता (९.११) में पुष्टि की गई है—अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्। यही सिद्धान्त तब भी लागू होता है जब वे शूकर या मत्स्य के रूप में अवतरित होते हैं। ये भगवान् के दिव्य रूप हैं, जो उनकी निजी इच्छा तथा लीलाओं की कुछ आवश्यकताओं के अन्तर्गत ही प्रकट होते हैं। उन्हें ऐसे दिव्य रूपों का प्राकट्य अपने भक्तों को प्रोत्साहित करने के लिए ही करना पड़ता है। जब जब उन्हें अपने भक्तों का उद्धार करने तथा अपने सिद्धान्तों को बनाये रखने की आवश्यकता होती है तब तब उनके विविध अवतार प्रकट होते हैं।
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