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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 9: सृजन-शक्ति के लिए ब्रह्मा द्वारा स्तुति  »  श्लोक 22
 
 
श्लोक  3.9.22 
सोऽयं समस्तजगतां सुहृदेक आत्मा
सत्त्वेन यन्मृडयते भगवान् भगेन ।
तेनैव मे द‍ृशमनुस्पृशताद्यथाहं
स्रक्ष्यामि पूर्ववदिदं प्रणतप्रियोऽसौ ॥ २२ ॥
 
शब्दार्थ
स:—वह; अयम्—भगवान्; समस्त-जगताम्—समस्त ब्रह्माण्डों में से; सुहृत् एक:—एकमात्र मित्र तथा दार्शनिक; आत्मा— परमात्मा; सत्त्वेन—सतोगुण के द्वारा; यत्—जो; मृडयते—सुख उत्पन्न करता है; भगवान्—भगवान्; भगेन—छ: ऐश्वर्यों द्वारा; तेन—उसके द्वारा; एव—निश्चय ही; मे—मुझको; दृशम्—आत्मपरीक्षण की शक्ति, अन्तर्दृष्टि; अनुस्पृशतात्—वह दे; यथा— जिस तरह; अहम्—मैं; स्रक्ष्यामि—सृजन कर सकूँगा; पूर्व-वत्—पहले की तरह; इदम्—यह ब्रह्माण्ड; प्रणत—शरणागत; प्रिय:—प्रिय; असौ—वह (भगवान्) ।.
 
अनुवाद
 
 परमेश्वर मुझ पर कृपालु हों। वे इस जगत में सारे जीवों के एकमात्र मित्र तथा आत्मा हैं और वे अपने छ: ऐश्वर्यों द्वारा जीवों के चरम सुख हेतु इन सबों का पालन-पोषण करते हैं। वे मुझ पर कृपालु हों, जिससे मैं पहले की तरह सृजन करने की आत्मपरीक्षण शक्ति से युक्त हो सकूँ, क्योंकि मैं भी उन शरणागत जीवों में से हूँ जो भगवान् को प्रिय हैं।
 
तात्पर्य
 भगवान् पुरुषोत्तम अर्थात् श्रीकृष्ण दिव्य तथा भौतिक दोनों ही जगतों में सबों के पालनकर्ता हैं। वे सबों के जीवन तथा मित्र हैं, क्योंकि जीवों तथा भगवान् के बीच शाश्वत सहज स्नेह तथा प्रेम होता है। वे सबों के एकमात्र मित्र तथा हितैषी हैं और वे अद्वय हैं। भगवान् अपने छ: दिव्य ऐश्वर्यों द्वारा सर्वत्र समस्त जीवों का पालन करते हैं जिसके कारण वे भगवान् अथवा पूर्ण पुरुषोत्तम परमेश्वर कहलाते हैं। ब्रह्माजी ने भगवान् की कृपा पाने के लिए प्रार्थना की जिससे वे पहले की तरह ब्रह्माण्ड का सृजन करने में समर्थ हो सकें। केवल भगवान् की अहैतुकी कृपा से वे मरीचि तथा नारद जैसी भौतिक तथा आध्यात्मिक विभूतियों का सृजन कर सके। ब्रह्मा ने भगवान् से प्रार्थना की, क्योंकि शरणागत के प्रति वे अतीव प्रिय रहते हैं। शरणागत आत्मा भगवान् के अतिरिक्त अन्य किसी को नहीं जानता, अतएव भगवान् उसके प्रति अतीव वत्सल रहते हैं।
 
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