श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 9: सृजन-शक्ति के लिए ब्रह्मा द्वारा स्तुति  »  श्लोक 25
 
 
श्लोक  3.9.25 
सोऽसावदभ्रकरुणो भगवान् विवृद्ध-
प्रेमस्मितेन नयनाम्बुरुहं विजृम्भन् ।
उत्थाय विश्वविजयाय च नो विषादं
माध्व्या गिरापनयतात्पुरुष: पुराण: ॥ २५ ॥
 
शब्दार्थ
स:—वह (भगवान्); असौ—उस; अदभ्र—असीम; करुण:—कृपालु; भगवान्—भगवान्; विवृद्ध—अत्यधिक; प्रेम—प्रेम; स्मितेन—हँसी द्वारा; नयन-अम्बुरुहम्—कमलनेत्रों को; विजृम्भन्—खोलते हुए; उत्थाय—उत्थान हेतु; विश्व-विजयाय—विराट सृष्टि की महिमा के गायन हेतु; च—भी; न:—हमारी; विषादम्—निराशा; माध्व्या—मधुर; गिरा—शब्द; अपनयतात्—वे दूर करें; पुरुष:—परम; पुराण:—सबसे प्राचीन ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् जो कि परम हैं और सबसे प्राचीन हैं, अपार कृपालु हैं। मैं चाहता हूँ कि वे अपने कमलनेत्रों को खोल कर मुसकाते हुए मुझे वर दें। वे सम्पूर्ण विराट सृष्टि का उत्थान कर सकते हैं और अपने कृपापूर्ण आदेशों के द्वारा हमारा विषाद दूर कर सकते हैं।
 
तात्पर्य
 भगवान् इस भौतिक जगत के पतितात्माओं पर अत्यधिक कृपालु हैं। सम्पूर्ण विराट जगत सबों के लिए अपनी भगवद्भक्ति बढ़ाने के लिए सुअवसर है और हर व्यक्ति इसी प्रयोजन के लिए है। भगवान् अपना विस्तार अनेक पुरुषों में करते हैं, जो या तो स्वांश होते हैं या विभिन्नांश। व्यष्टि आत्माओं वाले पुरुष उनके विभिन्नांश हैं जबकि स्वांश साक्षात् भगवान् होते हैं। स्वांश सेव्य होते हैं और विभिन्नांश आनन्द तथा ज्ञान के सर्वोच्च स्वरूप के साथ दिव्य आनन्द के आदान-प्रदान हेतु सेवक होते हैं। मुक्तात्माएँ बिना भौतिक कल्पित विचारों के सेव्य तथा सेवक के आनन्दमय आदान-प्रदान में सम्मिलित हो सकती हैं। सेव्य तथा सेवक के बीच ऐसे दिव्य आदान-प्रदान का विशिष्ट उदाहरण गोपियों के साथ सम्पन्न उनकी रासलीला है। गोपियाँ अन्तरंगा शक्ति की सेवक अंश हैं, अतएव रास लीला नृत्य में भगवान् के सम्मिलित होने को कभी भी पुरुष तथा स्त्री के संसारी सम्बन्ध जैसा नहीं मानना चाहिए। प्रत्युत भगवान् तथा जीवों के मध्य विचारों के आदान-प्रदान की यह सर्वोच्च सिद्धावस्था है। भगवान् पतितात्माओं को जीवन की इस सर्वोच्च सिद्धि के लिए अवसर प्रदान करते हैं। ब्रह्माजी को सम्पूर्ण विराट जगत की व्यवस्था का भार सौंपा गया है, अतएव वे भगवान् से आशीर्वाद माँगते हैं जिससे वे अपने इस कार्य को सम्पन्न कर सकें।
 
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हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥