मैत्रेय उवाच
स्वसम्भवं निशाम्यैवं तपोविद्यासमाधिभि: ।
यावन्मनोवच: स्तुत्वा विरराम स खिन्नवत् ॥ २६ ॥
शब्दार्थ
मैत्रेय: उवाच—महर्षि मैत्रेय ने कहा; स्व-सम्भवम्—अपने प्राकट्य का स्रोत; निशाम्य—देखकर; एवम्—इस प्रकार; तप:— तपस्या; विद्या—ज्ञान; समाधिभि:—तथा मन की एकाग्रता द्वारा; यावत्—यथासम्भव; मन:—मन; वच:—शब्द; स्तुत्वा— स्तुति करके; विरराम—मौन हो गया; स:—वह (ब्रह्मा); खिन्न-वत्—मानो थक गया हो ।.
अनुवाद
मैत्रेय मुनि ने कहा : हे विदुर, अपने प्राकट्य के स्रोत अर्थात् भगवान् को देखकर ब्रह्मा ने अपने मन तथा वाणी की क्षमता के अनुसार उनकी कृपा हेतु यथासम्भव स्तुति की। इस प्रकार स्तुति करने के बाद वे मौन हो गये मानो अपनी तपस्या, ज्ञान तथा मानसिक एकाग्रता के कारण वे थक गये हों।
तात्पर्य
ब्रह्मा में ज्ञान का प्रकाश इसलिए हुआ, क्योंकि भगवान् उनके हृदय में विराजमान थे। उत्पन्न होने के बाद ब्रह्माजी अपने प्राकट्य के स्रोत को सुनिश्चित नहीं कर पाये, किन्तु तपस्या तथा मानसिक एकाग्रता के बाद वे अपने जन्म के स्रोत को देख सके और इस तरह अपने हृदय के माध्यम से उन्हें प्रकाश प्राप्त हुआ। बाह्य गुरु तथा अन्तरिक गुरु दोनों ही भगवान् का प्रतिनिधित्व करते हैं। जब तक ऐसे प्रामाणिक प्रतिनिधित्व से किसी का सम्पर्क नहीं हो जाता तब तक वह अपने को गुरु नहीं कह सकता। ब्रह्माजी को बाह्य गुरु से सहायता लेने का अवसर ही नहीं था, क्योंकि उस समय ब्रह्माण्ड में वे ही एकमात्र प्राणी थे। अतएव ब्रह्मा की स्तुतियों से प्रसन्न होकर भगवान् ने उन्हें प्रत्येक वस्तु के विषय में भीतर से प्रबुद्ध किया।
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