श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 9: सृजन-शक्ति के लिए ब्रह्मा द्वारा स्तुति  »  श्लोक 27-28
 
 
श्लोक  3.9.27-28 
अथाभिप्रेतमन्वीक्ष्य ब्रह्मणो मधुसूदन: ।
विषण्णचेतसं तेन कल्पव्यतिकराम्भसा ॥ २७ ॥
लोकसंस्थानविज्ञान आत्मन: परिखिद्यत: ।
तमाहागाधया वाचा कश्मलं शमयन्निव ॥ २८ ॥
 
शब्दार्थ
अथ—तत्पश्चात्; अभिप्रेतम्—मंशा, मनोभाव; अन्वीक्ष्य—देखकर; ब्रह्मण:—ब्रह्मा का; मधुसूदन:—मधु नामक असुर के वधकर्ता; विषण्ण—खिन्न; चेतसम्—हृदय के; तेन—उसके द्वारा; कल्प—युग; व्यतिकर-अम्भसा—प्रलयकारी जल; लोक- संस्थान—लोक की स्थिति; विज्ञाने—विज्ञान में; आत्मन:—स्वयं को; परिखिद्यत:—अत्यधिक चिन्तित; तम्—उससे; आह— कहा; अगाधया—अत्यन्त विचारपूर्ण; वाचा—शब्दों से; कश्मलम्—अशुद्धियाँ; शमयन्—हटाते हुए; इव—मानो ।.
 
अनुवाद
 
 भगवान् ने देखा कि ब्रह्माजी विभिन्न लोकों की योजना बनाने तथा उनके निर्माण को लेकर अतीव चिन्तित हैं और प्रलयंकारी जल को देखकर खिन्न हैं। वे ब्रह्मा के मनोभाव को समझ गये, अत: उन्होंने उत्पन्न मोह को दूर करते हुए गम्भीर एवं विचारपूर्ण शब्द कहे।
 
तात्पर्य
 प्रलयकारी जल इतना भयावना था कि इसे देखकर ब्रह्मा तक विचलित हो गये थे और अत्यन्त चिन्तित थे कि विभिन्न जीवों को यथा मनुष्यों, मनुष्येतर तथा अतिमानवीय प्राणियों को स्थान देने के लिए बाह्य आकाश में विभिन्न लोकों को किस तरह स्थापित किया जाय। ब्रह्माण्ड के सारे लोक प्रकृति के गुणों के प्रभाव के अधीन विभिन्न कोटि के जीवों के अनुसार स्थित हैं। प्रकृति के गुण तीन हैं और परस्पर मिलाने पर ये नौ हो जाते हैं और जब इन नौ को मिलाया जाता है, तो वे इक्यासी बन जाते हैं। इसके बाद ये इक्यासी भी परस्पर मिलकर इतनी संख्या में हो जाते हैं कि भ्रम बढ़ता ही जाता है। ब्रह्माजी को निश्चित संख्या में बद्धजीवों को विभिन्न स्थानों तथा पदों पर स्थापित करना था। यह कार्य ब्रह्मा को ही करना था और ब्रह्माण्ड में अन्य कोई ऐसा नहीं जो यह समझ भी पाता हो कि यह कार्य कितना कठिन था। किन्तु भगवान् की दया से ब्रह्मा इस गुरुतर कार्य को इतनी दक्षता से सम्पन्न कर सके कि हर व्यक्ति विधाता की करामात देखकर चकित है।
 
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