श्रीभगवानुवाच
मा वेदगर्भ गास्तन्द्रीं सर्ग उद्यममावह ।
तन्मयापादितं ह्यग्रे यन्मां प्रार्थयते भवान् ॥ २९ ॥
शब्दार्थ
श्री-भगवान् उवाच—भगवान् ने कहा; मा—मत; वेद-गर्भ—वैदिक ज्ञान की गहराई तक पहुँचने वाले; गा: तन्द्रीम्—निराश हो; सर्गे—सृजन के लिए; उद्यमम्—अध्यवसाय; आवह—जरा हाथ तो लगाओ; तत्—वह (जो तुम चाहते हो); मया—मेरे द्वारा; आपादितम्—सम्पन्न हुआ; हि—निश्चय ही; अग्रे—पहले ही; यत्—जो; माम्—मुझसे; प्रार्थयते—माँग रहे हो; भवान्— तुम ।.
अनुवाद
तब पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् ने कहा, “हे ब्रह्मा, हे वेदगर्भ, तुम सृष्टि करने के लिए न तो निराश होओ, न ही चिन्तित। तुम जो मुझसे माँग रहे हो वह तुम्हें पहले ही दिया जा चुका है।
तात्पर्य
भगवान् या उनके प्रामाणिक प्रतिनिधि द्वारा अधिकारप्रदत्त कोई पुरुष पहले ही आशीर्वाद पा चुकता है और उसी तरह उसे सौंपा हुआ कार्य भी। निस्सन्देह, उस व्यक्ति को जिसे ऐसा उत्तरदायित्व सौंपा गया हो सदैव अपनी अक्षमता से अवगत होना चाहिए और अपने कर्तव्य के सफलतापूर्ण सम्पादन के लिए भगवान् की कृपा के लिए अपेक्षा करनी चाहिए। उसे इसलिए गर्वित नहीं होना चाहिए कि उसे कोई प्रशासनिक कार्य सौंपा गया है। वह भाग्यशाली है, जिसे ऐसा कार्य सौंपा गया है और यदि वह इस भाव में सदैव स्थिर रहता है कि मैं परमेश्वर की इच्छा के अधीन हूँ तो अपने कार्य के सम्पादन में उसका सफल होना सुनिश्चित है। अर्जुन को कुरुक्षेत्र की युद्धभूमि में युद्ध करने का कार्य सौंपा गया था और उसे यह कार्य सौंपने के पूर्व ही भगवान् उसकी विजय की व्यवस्था कर चुके थे। किन्तु अर्जुन भगवान् की अधीनता के प्रति सदैव सचेत रहा और इस उत्तरदायित्व में उसने उन्हें अपना परम मार्गदर्शक स्वीकार किया। जो भी व्यक्ति किसी उत्तरदायित्वपूर्ण कार्य को सम्पन्न करने के लिए गर्वित रहता है, किन्तु उसका श्रेय भगवान् को नहीं देता वह निश्चय ही मिथ्याभिमानी है और वह कोई भी कार्य ढंग से सम्पन्न नहीं कर सकता। ब्रह्मा तथा उनके पदचिह्नों का अनुसरण करने वाली शिष्य-परम्परा के व्यक्ति सदैव भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति सम्पादित करने में सफल होते हैं।
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