श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 9: सृजन-शक्ति के लिए ब्रह्मा द्वारा स्तुति  »  श्लोक 3
 
 
श्लोक  3.9.3 
नात: परं परम यद्भवत: स्वरूप-
मानन्दमात्रमविकल्पमविद्धवर्च: ।
पश्यामि विश्वसृजमेकमविश्वमात्मन्
भूतेन्द्रियात्मकमदस्त उपाश्रितोऽस्मि ॥ ३ ॥
 
शब्दार्थ
न—नहीं; अत: परम्—इसके पश्चात्; परम—हे परमेश्वर; यत्—जो; भवत:—आपका; स्वरूपम्—नित्यरूप; आनन्द-मात्रम्— निर्विशेष ब्रह्मज्योति; अविकल्पम्—बिना परिवर्तन के; अविद्ध-वर्च:—शक्ति के ह्रास बिना; पश्यामि—देखता हूँ; विश्व सृजम्—विराट जगत के स्रष्टा को; एकम्—अद्वय; अविश्वम्—फिर भी पदार्थ का नहीं; आत्मन्—हे परम कारण; भूत—शरीर; इन्द्रिय—इन्द्रियाँ; आत्मक—ऐसी पहचान से; मद:—गर्व; ते—आपके प्रति; उपाश्रित:—शरणागत; अस्मि—हूँ ।.
 
अनुवाद
 
 हे प्रभु, मैं आपके इस सच्चिदानन्द रूप से श्रेष्ठ अन्य कोई रूप नहीं देखता। वैकुण्ठ में आपकी निर्विशेष ब्रह्मज्योति में न तो यदाकदा परिवर्तन होता है और न अन्तरंगा शक्ति में कोई ह्रास आता है। मैं आपकी शरण ग्रहण करता हूँ, क्योंकि जहाँ मैं अपने भौतिक शरीर तथा इन्द्रियों पर गर्वित हूँ वहीं आप विराट जगत का कारण होते हुए भी पदार्थ द्वारा अस्पृश्य हैं।
 
तात्पर्य
 जैसाकि भगवद्गीता (१८.५५) में कहा गया है—भक्त्या मामभिजानाति यावान् यश्चास्मि तत्त्वत:—परमेश्वर को अंशत: ही जाना जा सकता है और वह भी एकमात्र भगवद्भक्ति के द्वारा। ब्रह्माजी को यह पता चल गया कि परमेश्वर कृष्ण के अनेकानेक सच्चिदानन्द रूप हैं। उन्होंने ब्रह्म-

संहिता (५.३३) में परमेश्वर गोविन्द के ऐसे अंशों का वर्णन निम्नवत् किया है— अद्वैतमच्युतमनादिमनन्तरूपम् आद्यं पुराणपुरुषं नवयौवनं च।

वेदेषु दुर्लभमदुर्लभमात्मभक्तौ गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥

“मैं उन आदि भगवान् गोविन्द की पूजा करता हूँ जो अद्वैत तथा अच्युत हैं। यद्यपि वे अनेकानेक रूपों में विस्तार करते हैं, किन्तु वे समस्त कारणों के आदि कारण हैं। यद्यपि वे सबसे पुराने व्यक्ति हैं, किन्तु वृद्धावस्था से अप्रभावित रहते हुए वे सदैव तरुण रहते हैं। पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् को वेदों के किताबी ज्ञान से नहीं जाना जा सकता। उन्हें समझने के लिए भगवद्भक्त के पास जाना पड़ता है।”

भगवान् के यथारूप को समझने का एकमात्र उपाय या तो भगवद्भक्ति है या ऐसे भगवद्भक्त के पास जाना जिसके हृदय में भगवान् सदैव बसते हों। भक्ति की सिद्धि से यह समझा जा सकता है कि निर्विशेष ब्रह्मज्योति तो पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् कृष्ण का केवल आंशिक स्वरूप है और भौतिक सृष्टि में उनके तीन पुरुष-विस्तार उनके स्वांश हैं। ब्रह्मज्योति के आध्यात्मिक आकाश में कल्पों में भी कोई परिवर्तन नहीं आता और वैकुण्ठलोक में कोई सृजनात्मक कार्यकलाप नहीं होते। काल का प्रभाव उसकी अनुपस्थिति से ही सुस्पष्ट हो जाता है। भगवान् के दिव्य शरीर की किरणें अथवा असीम ब्रह्मज्योति भौतिक शक्ति के प्रभाव से अवरुद्ध नहीं होती हैं। भौतिक जगत में भी आदि स्रष्टा स्वयं भगवान् हैं। वे ब्रह्मा का सृजन करते हैं, जो भगवान् से शक्ति प्राप्त करके परवर्ती स्रष्टा बन जाते हैं।

 
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