तुम मुझको सारे जीवों में तथा ब्रह्माण्ड में सर्वत्र उसी प्रकार देखोगे जिस तरह काठ में अग्नि स्थित रहती है। केवल उस दिव्य दृष्टि की अवस्था में तुम सभी प्रकार के मोह से अपने को मुक्त कर सकोगे।
तात्पर्य
ब्रह्मा ने प्रार्थना की कि अपने भौतिक कार्यों के दौरान कहीं वे भगवान् से अपने नित्य सम्बन्ध को भूल न जाँय। उस प्रार्थना के उत्तर में भगवान् ने कहा कि उन्हें यह विचार तक मन में नहीं लाना चाहिए कि वे भगवान् की सर्वशक्तिमत्ता से सम्बन्ध रखे बिना रह भी सकते हैं। यहाँ पर काठ के भीतर अग्नि का उदाहरण दिया गया है। काठ से उत्पन्न होने वाली अग्नि वही रहती है भले ही काठ भिन्न-भिन्न प्रकारों का हो। इसी तरह भौतिक सृष्टि के भीतर के जीवों के शरीर रूप तथा गुण के अनुसार भले ही भिन्न हों, किन्तु उनके भीतर का आत्मा एक दूसरे से भिन्न नहीं है। अग्नि की उष्मता का गुण सर्वत्र वही रहता है और आध्यात्मिक स्फुलिंग अथवा परमात्मा का भिन्नांश हर जीव में एकसा रहता है। इस तरह भगवान् की शक्ति उनकी सारी सृष्टि में वितरित है। एकमात्र यह दिव्य ज्ञान ही मनुष्य को भौतिक मोह के कल्मष से बचा सकता है। चूँकि भगवान् की शक्ति सर्वत्र वितरित है, अत: शुद्ध आत्मा या भगवद्भक्त हर वस्तु को भगवान् से सम्बन्धित देख सकता है, अतएव उसे बाहरी आवरणों से कोई स्नेह नहीं रहता। वह शुद्ध आध्यात्मिक विचार उसे भौतिक संगति के समस्त कल्मष से निश्चेष्ट बना देता है। शुद्ध भक्त किसी भी अवस्था में भगवान् के संसर्ग को भुला नहीं पाता।
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