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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 9: सृजन-शक्ति के लिए ब्रह्मा द्वारा स्तुति  »  श्लोक 33
 
 
श्लोक  3.9.33 
यदा रहितमात्मानं भूतेन्द्रियगुणाशयै: ।
स्वरूपेण मयोपेतं पश्यन् स्वाराज्यमृच्छति ॥ ३३ ॥
 
शब्दार्थ
यदा—जब; रहितम्—से मुक्त; आत्मानम्—आत्मा; भूत—भौतिक तत्त्व; इन्द्रिय—भौतिक इन्द्रियाँ; गुण-आशयै:—भौतिक गुणों के प्रभाव के अधीन; स्वरूपेण—शुद्ध जीवन में; मया—मेरे द्वारा; उपेतम्—निकट आकर; पश्यन्—देखने से; स्वाराज्यम्—आध्यात्मिक साम्राज्य; ऋच्छति—भोग करते हैं ।.
 
अनुवाद
 
 जब तुम स्थूल और सूक्ष्म शरीरों के विचार से मुक्त होगे तथा तुम्हारी इन्द्रियाँ प्रकृति के सारे प्रभावों से मुक्त होंगी तब तुम मेरी संगति में अपने शुद्ध रूप की अनुभूति कर सकोगे। उस समय तुम शुद्ध भावनामृत में स्थित होगे।
 
तात्पर्य
 भक्तिरसामृत सिन्धु में यह कहा गया है कि जिस व्यक्ति की एकमात्र आकांक्षा भगवान् की दिव्य प्रेमाभक्ति करने की होती है, वह संसार की किसी भी अवस्था में मुक्त पुरुष होता है। यह सेवाभाव ही जीव का स्वरूप या असली रूप है। श्री चैतन्य महाप्रभु ने भी श्रीचैतन्य-चरितामृत में यह घोषित करते हुए इस कथन की सम्पुष्टि की है कि जीव का असली आध्यात्मिक रूप भगवान् की नित्य दासता है। मायावादी लोग जीव में सेवा भाव के विचार से काँपने लगते हैं। वे यह नहीं जानते कि दिव्य जगत में भगवान् की सेवा दिव्य प्रेम पर आधारित है। दिव्य प्रेममयी सेवा की तुलना भौतिक जगत की बलात् कराई गई सेवा से कभी नहीं की जा सकती। भौतिक जगत में भले ही कोई इस विचार में रहे कि वह किसी का दास नहीं है फिर भी वह भौतिक गुणों के आदेशानुसार अपनी इन्द्रियों का दास होता है। वस्तुत: इस भौतिक जगत में स्वामी कोई नहीं है, अत: इन्द्रियों के दासों को दासता का बहुत बुरा अनुभव रहता है। वे सेवा के विचार से ही काँप उठते हैं, क्योंकि उन्हें दिव्य पद का कोई ज्ञान नहीं होता। दिव्य प्रेममयी सेवा में दास भगवान् की ही तरह स्वतंत्र होता है। भगवान् स्वराट् अर्थात् पूर्णतया स्वतंत्र हैं और आध्यात्मिक जगत में दास भी पूर्णतया स्वतंत्र या स्वराट् है, क्योंकि वहाँ बलात् सेवा नहीं ली जाती। वहाँ दिव्य प्रेममयी सेवा स्वत:स्फूर्त प्रेम के कारण होती है। ऐसी सेवा की प्रतिबिम्बित झलक पुत्र के प्रति माता की सेवा, मित्र के प्रति मित्र की सेवा या पति के प्रति पत्नी की सेवा में अनुभव की जाती है। मित्रों, मातापिता या पत्नियों द्वारा सेवा के ये प्रतिबिम्ब बलकृत नहीं, अपितु एकमात्र प्रेम के कारण हैं। किन्तु इस भौतिक जगत में प्रेममयी सेवा केवल प्रतिबिम्ब है। असली सेवा या स्वरूप सेवा भगवान् के सान्निध्य में दिव्य जगत में वर्तमान है। दिव्य प्रेम की वही सेवा यहाँ पर भक्ति में की जा सकती है।

यह श्लोक ज्ञानियों पर भी लागू होता है। जब प्रबुद्ध ज्ञानी समस्त कल्मषों से—यथा स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों के साथ-साथ प्रकृति के गुणों वाली इन्द्रियों से—मुक्त होता है, तो वह ब्रह्म को प्राप्त होता है और इस तरह भवबन्धन से छूट जाता है। वस्तुत: ज्ञानी तथा भक्तगण भौतिक कल्मष से मुक्ति पाने तक एकमत हैं, किन्तु जहाँ ज्ञानी लोग सामान्य ज्ञान के स्तर पर शान्त हो जाते हैं वहीं भक्तगण प्रेममयी सेवा में और अधिक आध्यात्मिक प्रगति कर लेते हैं। भक्तगण अपने स्वत:स्फूर्त सेवाभाव में आध्यात्मिक व्यष्टित्व विकसित कर लेते हैं, जो उत्तरोत्तर बढ़ता हुआ माधुर्यरस तक पहुँच जाता है।

 
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