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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 9: सृजन-शक्ति के लिए ब्रह्मा द्वारा स्तुति  »  श्लोक 34
 
 
श्लोक  3.9.34 
नानाकर्मवितानेन प्रजा बह्वी: सिसृक्षत: ।
नात्मावसीदत्यस्मिंस्ते वर्षीयान्मदनुग्रह: ॥ ३४ ॥
 
शब्दार्थ
नाना-कर्म—तरह तरह की सेवा; वितानेन—विस्तार से; प्रजा:—जनता; बह्वी:—असंख्य; सिसृक्षत:—वृद्धि करने की इच्छा करते हुए; —कभी नहीं; आत्मा—आत्मा; अवसीदति—वंचित होगा; अस्मिन्—पदार्थ में; ते—तुम्हारा; वर्षीयान्—सदैव बढ़ती हुई; मत्—मेरी; अनुग्रह:—अहैतुकी कृपा ।.
 
अनुवाद
 
 चूँकि तुमने जनसंख्या को असंख्य रूप में बढ़ाने तथा अपनी सेवा के प्रकारों को विस्तार देने की इच्छा प्रकट की है, अत: तुम इस विषय से कभी भी वंचित नहीं होगे, क्योंकि सभी कालों में तुम पर मेरी अहैतुकी कृपा बढ़ती ही जायेगी।
 
तात्पर्य
 भगवान् का शुद्ध भक्त विशेष काल, वस्तु तथा परिस्थिति के तथ्यों से ज्ञात होने के कारण भगवद्भक्तों की संख्या को नाना प्रकार से सदैव बढ़ाना चाहता है। दिव्य सेवा का ऐसा विस्तार भौतिकतावादी को भले ही भौतिक लगे, किन्तु तथ्य तो यह है कि वह भक्त के प्रति भगवान् की अहैतुकी कृपा का ही विस्तार होता है। ऐसे कार्यों की योजनाएँ भौतिक कार्य प्रतीत हो सकती हैं, किन्तु परमेश्वर की दिव्य इन्द्रियों की तुष्टि में लगे होने से उनकी शक्ति भिन्न-भिन्न होती है।
 
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  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥