हिंदी में पढ़े और सुनें
भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 9: सृजन-शक्ति के लिए ब्रह्मा द्वारा स्तुति  »  श्लोक 35
 
 
श्लोक  3.9.35 
ऋषिमाद्यं न बध्नाति पापीयांस्त्वां रजोगुण: ।
यन्मनो मयि निर्बद्धं प्रजा: संसृजतोऽपि ते ॥ ३५ ॥
 
शब्दार्थ
ऋषिम्—ऋषि को; आद्यम्—सर्वप्रथम; —कभी नहीं; बध्नाति—पास फटकता है; पापीयान्—पापी; त्वाम्—तुम; रज:- गुण:—रजोगुण; यत्—क्योंकि; मन:—मन; मयि—मुझमें; निर्बद्धम्—लगे रहने पर; प्रजा:—सन्तति; संसृजत:—उत्पन्न करते हुए; अपि—भी; ते—तुम्हारे ।.
 
अनुवाद
 
 तुम आदि ऋषि हो और तुम्हारा मन सदैव मुझमें स्थिर रहता है इसीलिए विभिन्न सन्ततियाँ उत्पन्न करने के कार्य में लगे रहने पर भी तुम्हारे पास पापमय रजोगुण फटक भी नहीं सकेगा।
 
तात्पर्य
 ब्रह्मा को यही आश्वासन द्वितीय स्कन्ध के नौवें अध्याय के श्लोक ३६ में दिया गया है। भगवान् द्वारा इस तरह अनुग्रह दिखाये जाने से ब्रह्मा की सारी योजनाएँ अच्युत हैं। यदि कभी ब्रह्मा मोहग्रस्त होते भी हैं, जैसाकि दशम स्कंध में है, तो वे अन्तरंगा शक्ति के कार्य को देखकर मोहित होते हैं और वह दिव्य सेवा में आगे बढऩे के लिए ही है। अर्जुन भी इसी तरह मोहित होता पाया जाता है। भगवान् के शुद्ध भक्तों को ऐसा मोह भगवद्ज्ञान में उनकी उत्तरोत्तर उन्नति के लिए ही है।
 
शेयर करें
       
 
  All glories to Srila Prabhupada. All glories to  वैष्णव भक्त-वृंद
  Disclaimer: copyrights reserved to BBT India and BBT Intl.

 
>  हरे कृष्ण हरे कृष्ण कृष्ण कृष्ण हरे हरे। हरे राम हरे राम राम राम हरे हरे॥