यच्चकर्थाङ्ग मतस्तोत्रं मत्कथाभ्युदयाङ्कितम् ।
यद्वा तपसि ते निष्ठा स एष मदनुग्रह: ॥ ३८ ॥
शब्दार्थ
यत्—वह जो; चकर्थ—सम्पन्न किया; अङ्ग—हे ब्रह्मा; मत्-स्तोत्रम्—मेरे लिए प्रार्थना; मत्-कथा—मेरे कार्यकलापों के विषय में शब्द; अभ्युदय-अङ्कितम्—मेरी दिव्य लीलाओं की परिगणना करते हुए; यत्—या जो; वा—अथवा; तपसि—तपस्या में; ते—तुम्हारी; निष्ठा—श्रद्धा; स:—वह; एष:—ये सब; मत्—मेरी; अनुग्रह:—अहैतुकी कृपा ।.
अनुवाद
हे ब्रह्मा, तुमने मेरे दिव्य कार्यों की महिमा की प्रशंसा करते हुए जो स्तुतियाँ की हैं, मुझे समझने के लिए तुमने जो तपस्याएँ की हैं तथा मुझमें तुम्हारी जो दृढ़ आस्था है—इन सबों को तुम मेरी अहैतुकी कृपा ही समझो।
तात्पर्य
जब कोई जीव दिव्य प्रेमाभक्ति में भगवान् की सेवा करना चाहता है, तो भगवान् चैत्य गुरु अर्थात् अन्त:करण के गुरु के रूप में भक्त की अनेक प्रकार से सहायता करते हैं। इस तरह भक्त भौतिक अनुमान से परे अनेक अद्भुत कार्य कर सकता है। भगवान् की कृपा से एक साधारण व्यक्ति तक सर्वोच्च आध्यात्मिक सिद्धि की स्तुतियों की रचना कर सकता है। ऐसी आध्यात्मिक सिद्धि भौतिक योग्यताओं द्वारा प्रतिबन्धित नहीं होती, अपितु दिव्य सेवा करने के निष्ठावान् प्रयास के फलस्वरूप विकसित होती है। आध्यात्मिक सिद्धि के लिए स्वैच्छिक प्रयास एकमात्र योग्यता है। धन या विद्या की भौतिक उपलब्धियाँ विचारणीय नहीं होतीं।
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