जहाँ तक परब्रह्म के साकार तथा निर्विशेष रूपों की बात है, उनके साकार रूप भगवान द्वारा समस्त ब्रह्माण्डों के मंगल हेतु विभिन्न स्वांशों के रूप में प्रदर्शित किये जाते हैं। भगवान् के साकार रूप की पूजा ध्यान द्वारा परमात्मा रूप में की जाती है, किन्तु निर्विशेष ब्रह्मज्योति की पूजा नहीं की जाती। जिन्हें भगवान् के निर्विशेष रूप की आसक्ति है, चाहे वह ध्यान में हो या अन्यत्र, वे सब नरकगामी होते हैं जैसाकि भगवद्गीता (१२.५) में कहा गया है कि निर्विशेषवादी व्यर्थ ही संसारी मानसिक चिन्तन में अपना समय बरबाद करते हैं, क्योंकि वे सत्य की अपेक्षा मिथ्या तर्कों में आसक्त रहते हैं। अतएव यहाँ पर ब्रह्मा ने निर्विशेषवादियों की संगति की निन्दा की है। भगवान् के समस्त स्वांश समान रूप से शक्तिमान होते हैं, जैसी कि ब्रह्म-संहिता (५.४६) में पुष्टि की गई है—
दीपार्चिरेव हि दशान्तरमभ्युपेत्य दीपायते विवृतहेतुसमानधर्मा।
यस्तादृगेव हि च विष्णुतया विभाति गोविन्दमादिपुरुषं तमहं भजामि ॥
भगवान् अपना विस्तार उसी तरह करते हैं, जिस तरह अग्नि की लपटें एक के बाद दूसरे में करती हैं। यद्यपि आदि ज्योति अर्थात् श्रीकृष्ण को परम पुरुष गोविन्द के रूप में स्वीकार किया जाता है, किन्तु राम, नृसिंह तथा वराह जैसे अन्य सारे विस्तार इत्यादि भगवान् के ही समान शक्तिशाली होते हैं। ऐसे समस्त विस्तार दिव्य होते हैं। श्रीमद्भागवत के प्रारम्भ में यह स्पष्ट किया गया है कि परम सत्य (परब्रह्म) भौतिक स्पर्श से नित्य अकलुषित होते हैं। भगवान् के दिव्य राज्य में शब्दों तथा कर्मों का इन्द्रजाल नहीं है। भगवान् के सभी रूप दिव्य होते हैं और ऐसे प्रदर्शन सदा समान होते हैं। किसी भक्त को प्रदर्शित भगवान् का कोई विशेष रूप लौकिक नहीं होता भले ही भक्त में भौतिक इच्छा शेष हो; न ही वह भौतिक शक्ति के प्रभाव के कारण प्रकट होता है जैसाकि निर्विशेषवादी मूर्खतावश मानते हैं। ऐसे निर्विशेषवादी, जो भगवान् के दिव्य रूपों को भौतिक जगत की उपज मानते हैं, निश्चित रूप से नरकगामी होते हैं।