श्रीमद् भागवतम
 
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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 9: सृजन-शक्ति के लिए ब्रह्मा द्वारा स्तुति  »  श्लोक 41
 
 
श्लोक  3.9.41 
पूर्तेन तपसा यज्ञैर्दानैर्योगसमाधिना ।
राद्धं नि:श्रेयसं पुंसां मत्प्रीतिस्तत्त्वविन्मतम् ॥ ४१ ॥
 
शब्दार्थ
पूर्तेन—परम्परागत अच्छे कार्य द्वारा; तपसा—तपस्या से; यज्ञै:—यज्ञों के द्वारा; दानै:—दान के द्वारा; योग—योग द्वारा; समाधिना—समाधि द्वारा; राद्धम्—सफलता; नि:श्रेयसम्—अन्ततोगत्वा लाभप्रद; पुंसाम्—मनुष्य की; मत्—मेरी; प्रीति:— तुष्टि; तत्त्व-वित्—दक्ष अध्यात्मवादी; मतम्—मत ।.
 
अनुवाद
 
 दक्ष अध्यात्मवादियों का यह मत है कि परम्परागत सत्कर्म, तपस्या, यज्ञ, दान, योग कर्म, समाधि आदि सम्पन्न करने का चरम लक्ष्य मेरी तुष्टि का आवाहन करना है।
 
तात्पर्य
 मानव समाज में अनेक परम्परागत पुण्य कर्म हैं यथा परोपकार, उपकार, राष्ट्रीयता, अन्तर्राष्ट्रीयता, दान, यज्ञ, तप तथा समाधि में ध्यान। किन्तु ये सब तभी लाभप्रद हो सकते हैं जब इनसे पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् की तुष्टि हो सके। किसी भी कार्य की, चाहे वह सामाजिक हो, राजनीतिक, धार्मिक या परोपकार सम्बन्धी, पूर्णता भगवान् को तुष्ट करने में है। सफलता का यह रहस्य भगवद्भक्तों को ज्ञात है, जिसका प्रत्यक्ष उदाहरण कुरुक्षेत्र के युद्धस्थल में अर्जुन द्वारा प्रस्तुत किया गया। अर्जुन एक नेक, अहिंसक मनुष्य के रूप में अपने परिजनों से युद्ध नहीं करना चाहता था किन्तु जब वह यह समझ गया कि कृष्ण युद्ध चाहते हैं और कुरुक्षेत्र में इसकी योजना उन्हीं की है, तो उसने अपनी प्रसन्नता का परित्याग करके भगवान् की प्रसन्नता के लिए युद्ध किया। सारे बुद्धिमान जनों के लिए यही उचित निर्णय है। मनुष्य को एकमात्र चिन्ता अपने कार्यों द्वारा भगवान् को तुष्ट करने की होनी चाहिए। यदि भगवान् किसी कार्य से, चाहे वह कैसा भी हो, तुष्ट हो जाते हैं, तो वह सफल है। अन्यथा यह समय का अपव्यय मात्र है। समस्त यज्ञ, तप, यौगिक समाधि तथा अन्य उत्तम एवं पुण्य कार्यों का यही मानदण्ड है।
 
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