मैं प्रत्येक जीव का परमात्मा हूँ। मैं परम निदेशक तथा परम प्रिय हूँ। लोग स्थूल तथा सूक्ष्म शरीरों के प्रति झूठे ही अनुरक्त रहते हैं; उन्हें तो एकमात्र मेरे प्रति अनुरक्त होना चाहिए।
तात्पर्य
पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् तो बद्ध तथा मुक्त दोनों ही दशाओं में परमप्रिय हैं। जब कोई व्यक्ति यह नहीं जानता कि भगवान् ही एकमात्र सर्वाधिक प्रिय लक्ष्य हैं, तब वह जीवन की बद्ध अवस्था में होता है और जब वह यह भलीभाँति जान लेता है कि भगवान् ही एकमात्र सर्वाधिक प्रिय लक्ष्य हैं, तो वह मुक्त माना जाता है। भगवान् के साथ अपने सम्बन्ध को जानने की कोटियाँ हैं, जो इस अनुभूति पर निर्भर करती हैं कि परमेश्वर प्रत्येक जीव के सर्वप्रिय लक्ष्य क्यों हैं। असली कारण भगवद्गीता (१५.७) में स्पष्ट बतलाया गया है। ममैवांशो जीवलोके जीवभूत: सनातन:—सारे जीव परमेश्वर के नित्य भिन्नांश हैं। जीव आत्मा कहलाता है और भगवान् परमात्मा। जीव ब्रह्म कहलाता है और भगवान् परब्रह्म या परमेश्वर। ईश्वर: परम: कृष्ण:। जिन बद्धात्माओं को आत्म-साक्षात्कार नहीं हुआ होता वे भौतिक देह को ही सर्वप्रिय मानते हैं। तब सर्वप्रियन्ता का विचार केन्द्रीभूत तथा विस्तृत दोनों रूपों में सारे शरीर में फैल जाता है। अपने शरीर तथा इसके विस्तारों यथा सन्तानों तथा सम्बन्धियों के प्रति अनुरक्ति वस्तुत: असली जीव के आधार पर विकसित होती है। जब असली जीव शरीर से बाहर चला जाता है, तो सर्वप्रिय पुत्र तक का शरीर आकर्षक नहीं लगता। अतएव सजीव स्फुलिंग या ब्रह्म का नित्य अंश स्नेह का असली आधार है, शरीर नहीं। चूँकि सारे जीव भी सर्वोपरि पुरुष के अंश हैं, अत: वे परम पुरुष सबों के स्नेह के वास्तविक आधार हैं। जो व्यक्ति प्रत्येक वस्तु के लिए अपने प्रेम के मूलभूत सिद्धान्त को भूल जाता है उसमें केवल टिमटिमाता प्रेम होता है, क्योंकि वह मायाग्रस्त होता है। जो माया के सिद्धान्त से जितना ही अधिक प्रभावित होता है, वह प्रेम के मूल सिद्धान्त से उतना ही विरक्त रहता है। जब तक कोई व्यक्ति भगवान् की प्रेमाभक्ति में पूर्णतया विकसित नहीं होता तब तक वास्तव में वह किसी वस्तु से प्रेम नहीं कर सकता।
प्रस्तुत श्लोक में पूर्ण पुरुषोत्तम भगवान् पर प्रेम को केन्द्रित करने पर बल दिया गया है। यहाँ पर कुर्यात् शब्द सार्थक है। इसका अर्थ है “मनुष्य इसे प्राप्त करे।” यह इस बात पर बल देने के लिए है कि हमें प्रेम के सिद्धान्त के प्रति अधिकाधिक अनुरक्त होना चाहिए। माया का प्रभाव आध्यात्मिक जीव के अंश द्वारा अनुभव किया जाता है, किन्तु यह माया परमात्मा पर अपना प्रभाव नहीं दिखा सकती। मायावादी दार्शनिक जीव पर माया के प्रभाव को स्वीकार करके परमात्मा के साथ तदाकार होना चाहते हैं। किन्तु परमात्मा के प्रति वास्तविक प्रेम न होने से वे माया के प्रभाव द्वारा सदैव पाशबद्ध रहते हैं और परमात्मा के निकट पहुँच पाने में अक्षम रहते हैं। यह अक्षमता परमात्मा के प्रति उनके स्नेह के अभाव के कारण है। धनी कंजूस यह नहीं जानता कि वह अपनी सम्पत्ति का किस तरह उपयोग करे, अतएव अत्यन्त धनी होते हुए भी उसका कंजूस स्वभाव उसे सदैव निर्धन व्यक्ति बनाये रखता है। इस के विपरीत वह व्यक्ति जो यह जानता है कि धन का किस तरह उपयोग किया जाय, थोड़ी पूँजी होने पर भी तुरन्त धनी बन सकता है।
आँखों तथा सूर्य में अत्यन्त घनिष्ठ सम्बन्ध है, क्योंकि सूर्यप्रकाश के बिना आँखें देख नहीं सकतीं। किन्तु शरीर के अन्य भाग, क्योंकि वे उष्मा के स्रोत के रुप में सूर्य से जुड़े होते हैं, आँखों की अपेक्षा सूर्य का अधिक लाभ उठाते हैं। सूर्य के प्रति स्नेह से युक्त हुए बिना आँखें सूर्य की किरणों को सहन नहीं कर सकतीं अथवा, दूसरे शब्दों में, ऐसी आँखों में सूर्य की किरणों की उपयोगिता को समझ पाने की क्षमता नहीं होती। इसी प्रकार से आनुभविक दार्शनिक, ब्रह्म का सैद्धान्तिक ज्ञान होने के बावजूद, परब्रह्म की कृपा का उपयोग नहीं कर पाते, क्योंकि उनमें स्नेह का अभाव रहता है। अत: अनेक निर्विशेषवादी दार्शनिक जन ब्रह्म का सैद्धान्तिक ज्ञान रखने के बावजूद भी सदा के लिए माया के वशीभूत रहते हैं, और वे ब्रह्म के प्रति स्नेह उत्पन्न नहीं करते, न ही उनमें स्नेह उत्पन्न होने की कोई सम्भावना रहती है, क्योंकि उनकी विधि दोषपूर्ण है। सूर्यदेव का भक्त, दृष्टिहीन होते हुए भी इस लोक से सूर्यदेव को उनके यथारूप में देख सकता है, किन्तु जो सूर्य का भक्त नहीं है, वह सूर्य की चमक को भी सहन नहीं कर पाता। इसी तरह भक्तियोग के द्वारा, कोई व्यक्ति ज्ञानी के स्तर पर न होते हुए भी, शुद्ध प्रेम के विकास के कारण अपने भीतर भगवान् का दर्शन कर सकता है। मनुष्य को सभी परिस्थितियों में भगवत्प्रेम विकसित करने का प्रयास करना चाहिए और इससे समस्त जटिल समस्याएँ हल हो जायेंगी।
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