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भागवत पुराण  »  स्कन्ध 3: यथास्थिति  »  अध्याय 9: सृजन-शक्ति के लिए ब्रह्मा द्वारा स्तुति  »  श्लोक 7
 
 
श्लोक  3.9.7 
दैवेन ते हतधियो भवत: प्रसङ्गा-
त्सर्वाशुभोपशमनाद्विमुखेन्द्रिया ये ।
कुर्वन्ति कामसुखलेशलवाय दीना
लोभाभिभूतमनसोऽकुशलानि शश्वत् ॥ ७ ॥
 
शब्दार्थ
दैवेन—दुर्भाग्य से; ते—वे; हत-धिय:—स्मृति से वंचित; भवत:—आपकी; प्रसङ्गात्—कथाओं से; सर्व—समस्त; अशुभ— अकल्याणकारी; उपशमनात्—शमन करते हुए; विमुख—के विरुद्ध बने हुए; इन्द्रिया:—इन्द्रियाँ; ये—जो; कुर्वन्ति—करते हैं; काम—इन्द्रिय-तृप्ति; सुख—सुख; लेश—अल्प; लवाय—क्षण भर के लिए; दीना:—बेचारे; लोभ-अभिभूत—लोभ से ग्रसित; मनस:—मन वाले; अकुशलानि—अशुभ कार्यकलाप; शश्वत्—सदैव ।.
 
अनुवाद
 
 हे प्रभु, वे व्यक्ति जो आपके दिव्य कार्यकलापों के विषय में सर्वमंगलकारी कीर्तन तथा श्रवण करने से वंचित हैं निश्चित रूप से वे अभागे हैं और सद्बुद्धि से विहीन हैं। वे तनिक देर के लिए इन्द्रियतृप्ति का भोग करने हेतु अशुभ कार्यों में लग जाते हैं।
 
तात्पर्य
 अगला प्रश्न है कि लोग भगवान् की महिमा तथा लीलाओं का श्रवण तथा कीर्तन करने जैसे शुभ कार्यों के विरुद्ध क्यों हैं जबकि ये कार्य संसार की सारी चिन्ताओं और झंझटों से पूर्ण स्वतंत्रता दिलाने वाले हैं? इस प्रश्न का एकमात्र उत्तर है कि वे इन्द्रियतृप्ति के निमित्त ही किये गये अपने अपराधपूर्ण कार्यों पर अधिदैवी नियंत्रण के कारण अभागे हैं। किन्तु भगवान् के शुद्ध भक्तों को ऐसे अभागे लोगों पर तरस आता है और वे धर्मोपदेश के भाव में उन्हें भक्ति के मार्ग में लाने के लिए राजी करने का प्रयास करते हैं। केवल शुद्ध भक्तों की कृपा से ऐसे अभागे लोग दिव्य सेवा के पद तक ऊपर उठ पाते हैं।
 
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